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निर्लेपता
१४१ इसमें भी सर्व प्रथम बात है शुद्धि की । मन में शुद्धिकरण की भावना पैदा होनी चाहिये।
एक बार एक मनुष्य किसी योगी के पास गया । उन्हें प्रणिपात वन्दन कर विनयभाव से कहा । "गुरुदेव, मैं परमात्मा के दर्शन करना चाहता हूँ। आप करायेंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी ।"
योगीराज ने नजर उठाकर उसे देखा । क्षण दो क्षण उसे निर्निमेष दृष्टि से देखते रहे । तब उसका हाथ अपने हाथ में लेकर चल पड़े। गाँव के बाहर बड़ा तालाब था । योगीराज ने उसके साथ शीतल जल में प्रवेश किया । जैसेजैसे वे आगे बढ़ते गये, जल का स्तर बढता गया। वे दोनों कमर से ऊपर तक गहरे जल में चले गये । फिर भी आगे बढ़ते रहे । पानी सीने तक पहुंच गया। लेकिन रुके नहीं । दाढी तक पहुँच गया, फिर भी आगे बढ़ते रहे और जब नाक तक पहुँच गया, तब योगीराज ने विद्युत वेग से अविलम्ब उसे पानी के भीतर पूरी ताकत के साथ दबोच लिया । वह छटपटने लगा। तड़पने लगा । ऊपर आने के लिये हाथ पाँव मारने लगा । लेकिन योगीराज ने उसे दबोचे ही रखा। उसने लाख कोशिश की बाहर निकलने की, लेकिन वह अपने प्रयत्न में कारगार न हुआ । इस तरह पाँच-दस सेकण्ड व्यतीत हो गये । तब योगीराज ने उसे ऊपर उठाया और तालाब से बाहर निकल आये । योगीराज की क्रिया से हैरानपरेशान वह सकते में आकर उनका मुँह ताकने लगा।
___ वातावरण में नीरव शान्ति छा गयी । एक-दूसरे की धड़कनें साफ सुनायी दे रहीं थीं । पानी में रहने के कारण मनुष्य अधमरा हो गया था फिर भी कुछ नहीं बोला । तब शान्ति भंग करते हुए योगीराज ने गंभीर स्वर में प्रश्न किया :" मैंने जब तुम्हें पानी में डूबा दिया था, तब तुम किसलिये छटपटा रहे थे?"
"हवा के लिये ।" "और छटपटाहट कैसी थी ?"
"यदि ज्यादा समय लगता तो मेरे प्राण-पंखेरू उड़ जाते । मैं मर जाता ।"