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ज्ञानसार
निश्चयनय के अनुसार आत्मा अलिप्त है ।
जबकि लिप्तता ‘व्यवहार नय' * के अनुसार है । " मैं जघन्य / अशुद्ध प्रवृत्तियों के कारण कर्म - बन्धनों से जकड़ा हुआ हूँ । कर्म - लिप्त हूँ । लेकिन अब सत्प्रवृत्तियों को अपने जीवन में अपनाकर कर्म - बन्धनों को तोड़ने का, उससे मुक्त होने का यथेष्ट प्रयास करूँगा । साथ ही ऐसा कोई कार्य नहीं करूँगा कि जिससे नये सिरे से कर्म - बन्धन होने की जरा भी सम्भावना हो । इस सद्भावना और सत्-प्रवृत्ति के माध्यम से मैं अपनी आत्मा को शुद्ध बनाऊँगा ।" इस तरह के विचारों के साथ यह लिप्त - दृष्टि से आवश्यकादि क्रियाओं को जीवन में आत्मसात् करता हुआ आत्मा को शुद्ध बनाता है ।
शुद्ध बनने के लिये ज्ञानीजनों को, योगी पुरुषों को 'निश्चय नय' का मार्ग ही अपनाना है | जबकि रात-दिन अहर्निश पापी दुनिया में खोये जीवात्मा के लिये 'व्यवहारनय' का क्रियामार्ग ही सभी दृष्टि से उचित है । उसे अपनी कर्ममलिन अशुद्ध अवस्था का खयाल कर उसकी सर्वांगीण शुद्धि हेतु जिनोक्त सम्यक् - क्रिया का सम्मान करते हुए आत्मशुद्धिकरण का प्रयोग करना चाहिये । ज्यों-ज्यों पाप-क्रियाओं से मुक्त होते जाओगे, त्यों-त्यों निश्चयनय की अलिप्त दृष्टि का अवलम्बन लेकर शुद्ध-ध्यान की तरफ निरन्तर प्रगति करते रहोगे ।
ज्ञान- क्रियासमावेशः सदैवोन्मीलने द्वयोः । भूमिकाभेदतस्त्वत्र, भवेदेकैक - मुख्यता ॥११॥७॥
अर्थ : दोनों दृष्टियों के साथ खुलने से ज्ञान-क्रिया की एकता होती है। यहाँ ज्ञान-क्रिया में गुणस्थानक - स्वरूप अवस्था के भेद से प्रत्येक की महत्ता
है।
विवेचन : शुद्धि के लिये दो दृष्टियाँ खुलनी चाहियें । लिप्त दृष्टि और अलिप्त दृष्टि । जब दोनों दृष्टियाँ एक साथ खुलती हैं, तब ज्ञान और क्रिया की एकात्मता सधती है। गुणस्थानक की भूमिका के अनुसार ज्ञान-क्रिया का प्राधान्य रहता है ।
व्यवहारनय की जानकारी के लिए परिशिष्ट देखिए ।