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________________ निर्लेपता १३९ ग्रहण कर निरन्तर उसमें आकण्ठ डूबा रहे तो वह कर्म - बन्धन से बच नहीं सकता। ठीक उसी तरह श्रुतज्ञानप्राप्ति के पश्चात् किसी प्रकार के प्रमाद अथवा मिथ्याभिमान का शिकार बन जाए तो भावनाज्ञान की मंजिल तक पहुँच नहीं पाता । अतः तप और ज्ञान रूपी अक्षयनिधि प्राप्त करने के पश्चात् उससे पदच्युतं न होने पाये, इसीलिये निम्नांकित भावनाओं से भावित होना नितान्त आवश्यक है । पूर्व पुरुषसिंहों के अपूर्वज्ञान की तुलना में मैं तुच्छ / पामर जीव मात्र हूँ... भला किस बात का अभिमान करूँ ? जिस तप और ज्ञान के सहारे मुझे भवसागर से तिरना है, उसीके सहयोग से मुझे अपनी जीवन - नौका को डूबाना नहीं है । श्रुतज्ञान के बाद चिन्ताज्ञान और भावनाज्ञान की मंजिल तक पहुँचना है, अतः मैं मिथ्याभिमान से कोसों दूर रहूँगा । भावनाज्ञान तक पहुँचने के लिये आवश्यकादि क्रियाओं का सम्मानसहित आदर करूँगा । अलिप्तो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः । शुद्धयत्यलिप्तया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दशा ॥ ११ ॥६॥ अर्थ : निश्चयनय के अनुसार जीव कर्म-बन्धनों से जकडा हुआ नहीं है, लेकिन व्यवहार नय के अनुसार वह जकड़ा हुआ है। ज्ञानीजन निर्लिप्त दृष्टि से शुद्ध होते हैं और क्रियाशील लिप्त दृष्टि से विवेचन : "मैं अपने शुद्ध स्वभाव में अज्ञानी नहीं... पूर्णरूपेण ज्ञानी हूँ... पूर्णदर्शी हूँ... अक्रोधी हूँ... निरभिमानी हूँ... मायारहित हूँ... निर्लोभी हूँ.... निर्मोही हूँ... अनंत वीर्यशाली हूँ... अनामी और अगुरुलघु हूँ । अनाहारी और अवेदी हूँ | मेरे स्वभाव में न तो निद्रा है ना ही विकथा, ना रूप है, ना रंग । मेरा स्वरूप सच्चिदानन्दमय है ।" आत्मा की इसी स्वभाव दशा के चिन्तनमनन से ज्ञानीजन शुद्ध - विशुद्ध बनते हैं । 'निश्चयनय, * नयकी यही मान्यता है । ★ निश्चयनय का विस्तृत स्वरुप परिशिष्ट में देखिए ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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