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________________ १३८ ज्ञानसार अपना उत्कर्ष और दूसरे का अपकर्ष करते हुए जीव, आत्मा के शुद्धविशुद्ध अध्यवसायों को मटियामेट कर देते हैं । परिणामस्वरूप आत्मा विशुद्ध अध्यवसायों का स्मशान बनकर रह जाता है। जिस स्मशान में क्रोध, अभिमान, मोह, माया, लोभ, लालच के भूत पिशाच निर्बाध रूप से तांडव नृत्य करने लगते हैं और आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह की डाकिनियां निरन्तर अट्टहास करती नज़र आती हैं। साथ ही सर्वत्र विषय-विकार के गिद्ध बेबाक उड़ते रहते हैं। पूज्य उमास्वातिजी 'प्रशमरति' में साधक-आत्मा से प्रश्न करते हैं'लब्ध्वा सर्व मदहरं तेनैव मदः कथं कार्यः ?' तप-त्याग--ज्ञानादि के आलम्बन से जहाँ मदहरण होता है, वहाँ उन्हीं की सहायता से भला अभिमान कैसे किया जाये ? याद रखो और जीवन में आत्मसात् कर लो कि अभिमान करना बुरी बात है और उसके दुष्परिणाम प्रायः भयंकर होते हैं। _ 'केवलमुन्मादः स्वहदयस्य संसारवृद्धिश्च ।' मद से दो तरह का नुकसान होता है-हृदय का उन्माद और संसारपरिभ्रमण में वृद्धि । इससे तुम्हें कोई नहीं बचा सकता । तप, त्याग और श्रुतज्ञान के माध्यम से 'भावनाज्ञान' की भूमिका तक पहुँचना है। समस्त सत्क्रियाओं के द्वारा आत्मा को भावनाज्ञान से भावित करना है और यदि एक बार भावनाज्ञान से भावित हो जाओगे, तो दुनिया की कोई ताकत, किसी प्रकार की कोई क्रिया न करने पर भी तुम्हें कर्मलिप्त नहीं कर सकती। श्रुतज्ञान और चिन्ताज्ञान के पश्चात् भावनाज्ञान की कक्षा प्राप्त होती है। तब ध्याता, ध्येय और ध्यान में किसी प्रकार का भेद नहीं रह पाता । बल्कि वहाँ सदा सर्वदा होती है ध्याता, ध्येय और ध्यान के अभेद की अद्भुत मस्ती ! लेकिन उसकी अवधि केवल अन्तर्मुहूर्त की होती है। उस समय बाह्य धर्मक्रिया की आवश्यकता नहीं होती । फिर भी वह कर्म-लिप्त नहीं होता । लेकिन जिसके श्रतज्ञान का कोई ठौर-ठिकाना नहीं है, ऐसा जीव यदि आवश्यकादि क्रियाओं को सदन्तर त्याग दे और मनमाने धर्मध्यान का आश्रय
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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