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________________ १३६ प्रमादों से बाल-बाल बच जाता है । प्रस्तुत प्रमाद - अवस्था छठे गुणस्थानक * तक ही सीमित है । जबकि 'प्रमत्त - संयत्त' गुणस्थान तक प्रतिक्रमणप्रतिलेखनादि बाह्य धर्मक्रियायें करने का विधान है। जब तक जीव प्रमादसंयुक्त होगा, तब तक निरालम्ब (आलम्बन - रहित) धर्म- ध्यान टिक नहीं सकता । उक्त तथ्य का उल्लेख 'गुणस्थान - क्रमारोह में किया गया है : ज्ञानसार यावत् प्रमादसंयुक्तस्तावत्तस्य न तिष्ठति । धर्मध्यानं निरालम्बमित्यूचुर्जिन भास्कराः ॥ - गुणस्थान क्रमारोहे अर्थात् जब तक विषय-कषायादि प्रमाद का जोर है, तब तक निर्लेप- ज्ञान में तल्लीन होने की वृत्ति पैदा नहीं होती। ऐसी परिस्थिति में यदि आवश्यकादि को तजकर निश्चल ध्यान की शरण ले लें, तो 'अतो भ्रष्टः ततो भ्रष्टः ' सदृश भयंकर स्थिति पैदा होते विलम्ब नहीं लगता । कुछ लोग प्रतिक्रमणादि क्रियाओं से ऊबकर निश्चल ध्यान की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन इस तरह करने से न तो उनकी विषय—कषायादि की वृत्ति— प्रवृत्ति क्षीण बनती है, ना ही वे अगले गुणस्थान पर आरूढ हो सकते हैं। ऐसे लोग जैन दर्शन की सूक्ष्मता समझने में पूर्णतया असमर्थ हैं, ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति न होगी। वे कपोल-कल्पनाओं के आग्रही बन वास्तविक आत्मोन्नति के मार्ग से हमेशा के लिये विमुख बन जाते हैं । फलस्वरूप, जब तक अप्रमत्त दशा प्राप्त न हो तब तक अविरत रूप से आवश्यकादि क्रियाओं को करते रहना चाहिये। इन क्रियाओं के आलम्बन से आत्मा प्रमाद की गहरी खाई में गिरने से बच जाती है। विभावदशा के प्रति रहा अज्ञान उसके मनोमन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकता। ‘श्री गुणस्थान क्रमारोह' में कहा है :. तस्मादावश्यकैः कुर्यात् प्राप्तदोषनिकृन्तनम् । यावन्नाप्नोति सद्धयानमप्रमत्तगुणाश्रितम् ॥३१॥ .. सातवें गुणस्थान के सम्यग् ध्यान में यानी निर्लेप - ज्ञान में जब तक तल्लीनता का अभाव हो, तब तक आवश्यकादि क्रियाओं के माध्यम से विषय - कषायों की बाढ़ को बीच में ही अवरूद्ध करके हमेशा के लिये उसका नामोनिशान मिटा दो । ★ गुणस्थानक के स्वरुप को जानने के लिये परिशिष्ट देखिये ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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