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________________ निर्लेपता १३५ जघन्य गुणधारक स्निग्ध पुद्गल और जघन्य गुणधारक रुक्ष पुद्गलों का परस्पर बन्ध नहीं होता । वे आपस में नहीं जुड़ पाते । जब गुण की विषमता होती है, तब सजातीय पुद्गलों का भी परस्पर बन्ध होता है। अर्थात् समान गुणवाले स्निग्ध पुद्गलों का, ठीक वैसे ही तुल्य गुणवाले रुक्ष पुद्गलों का सम-धर्मी पुद्गलों के साथ आपस में बन्ध नहीं होता । आत्मा के साथ पुद्गलों का जो संबन्ध है, वह ' तादात्म्य संबन्ध' नहीं ' बल्कि 'संयोग-संबन्ध' है । आत्मा और पुद्गल के गुणधर्म परस्पर विरोधी, एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं । अतः ये दोनों एकरूप नहीं बन सकते । ठीक इसी तरह पुद्गल और आत्मा का भेदज्ञान परिपक्व हो जाने के पश्चात् कर्मपुद्गलों से लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता । भेदज्ञान को परिपक्व करने के लिये निम्नांकित पंक्तियों को आत्मसात् करना परमावश्यक है । लिप्त होते पुद्गल सभी, पुद्गलों से मैं नहीं । अंजन स्पर्शे न आकाश, है शाश्वत सत्य यही ॥ लिप्ता ज्ञान संपात - प्रतिघाताय केवलम् । निर्ले - पज्ञानमग्नस्य क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥ ११॥४॥ > अर्थ : " आत्मा निर्लिप्त है" ऐसे निर्लेप भाव के ज्ञान में मग्न बने जीव को आवश्यकादि सभी क्रियायें, केवल 'आत्मा कर्मबद्ध है, ऐसे लिप्तता के ज्ञानागमन को रोकने के लिये उपयोगी होती है । विवेचन : जिस के आत्म - प्रदेश पर 'मैं निर्लिप्त हूँ, ऐसे निर्लेपता ज्ञान की धारा अस्खलित गति से प्रवाहित होती हो, ऐसे योगी महापुरुष के लिये आवश्यक प्रतिलेखनादि क्रियाओं का कोई प्रयोजन नहीं रहता । क्योंकि आवश्यकादि क्रियाओं का प्रयोजन तो सिर्फ विभावदशा में यानी लिप्तता - ज्ञान में गमन करती चित्तवृत्तियों को अवरुद्ध करने के लिये है । इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा जब तक अविरत रूप से प्रमाद - केन्द्रों की तरफ आकर्षित होती है, तब तक आवश्यकादि क्रियायें जीव के लिये महान उपकारक और हितकारी हैं । इन क्रियाओं के माध्यम से जीव विषय - कषायादि
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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