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________________ तृप्ति १२५ विषयैः क्षीयते कामो नेन्धनैरिव पावकः । प्रत्युत प्रोल्लसच्छक्ति-भूयः एवोपवर्धते । 'आग में इन्धन डालने से आग शान्त होने के बजाय अधिकाधिक भड़क उठती है और उसमें से स्फोट ही होता है । ठीक उसी तरह सांसारिक पुद्गलों के भोगोपभोग से तृप्ति तो दूर रही, बल्कि अतृप्ति की ज्वालायें आकाश को छूने लगती हैं: जिसका अन्त सर्वनाश में होता है।' इसी तरह पुद्गलों के अति सेवन से, (जो पुद्गलभोजन विषभोजन है) ऐसा अजीर्ण होता है कि उसके असंख्य विकल्प स्वरूप डकारों की परंपरा निरन्तर चलती रहती है वह, बन्द नहीं होती । कंडरिक ने पुद्गलसेवन की अति लालसा के वशीभूत होकर साधु जीवन का परित्याग किया । वह भागता हुआ राजमहल पहुँचा और अधीर बन उसने मनभावन स्वादिष्ट भोजन का सेवन किया । पेट भर कर खाया । तत्पश्चात् मखमली, मुलायम गद्दों पर गिरकर लोटने लगा। बेचैनी से करवटें बदलने लगा। राज कर्मचारी एवं सेवकगण असंतोष से विषभोजी कंडरिक को हेय-दृष्टि से देखने लगे। मारे अजीर्ण के वह बावरा बन गया । उसे भयंकर हिंसक विचारों के डकार पर डकार आने लगे । परिणाम यह हुआ कि विषभोजन से उसे अपने प्राणों से हाथ धोना पडा और वह सातवीं नरक में चला गया । 'विषयेषु प्रवृत्तानां वैराग्यः खलु दुर्लभम्', जो पुद्गलपरिभोग में लिप्त हैं, उनमें वैराग्य दुर्लभ होता है और जब वैराग्य ही नहीं, तब सम्यग् ज्ञानी कैसा? सम्यग् ज्ञान के अभाव में ज्ञानानन्द की तृप्ति कैसी? और ज्ञानानन्द में तृप्ति मिले बिना ध्यान-अमृत की डकारें कैसे सम्भव है ? जबकि ज्ञानतृप्त आत्मा को निरन्तर ध्यानामृत की डकार आती ही रहती हैं। आत्मानुभव में तादात्म्य साधने के पश्चात् आत्मगुणों में तन्मयता रूपी ध्यान चलता ही रहता है। परिणामस्वरूप ऐसे दिव्य आनन्द कि अनुभूति होती है कि वह संसार के जङ-चेतन, किसी भी पदार्थ के प्रति आकर्षित नहीं होता। निर्मम भाव से चले जा रहे खंधकमुनि ज्ञानामृत का पान कर परितृप्त
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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