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दिया । कोयल की मनभावन कूक, मलयाचल की मंथर गति से बहती हवा, क्रीडारसिक भ्रमरराज का मृदु गुंजन आदि मनोहारी दृश्यों की बाढ़ आ गयी । सर्वत्र कामोत्तेजक वातावरण का समा बन्ध गया और तब इन्द्र स्वयं नवोढा सीता बन गया । साथ ही असंख्य सखियों के साथ गीत-संगीत की धुनें जगा दीं । वह विनीत भाव से रामचन्द्रजी के सामने खड़ा हो गया । नतमस्तक हो सौन्दर्य का अनन्य प्रतीक बन, उसने गद्गद् कण्ठ से कहा - " नाथ ! हमारा स्वीकार कर दिव्य सुख का उपभोग कीजिये और परम तृप्ति पाईये । मेरे साथ रही मेरी इन असंख्य विद्याधर युवतियों के उन्मत्त यौवन का रसास्वादन कर हमें कृतकृत्य कीजिये ।" नूपुर के मंजुल स्वर के साथ स्मरदेव केलि - क्रीडा में खो गये ।
ज्ञानसार
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लेकिन सीतेन्द्र के मृदु वचन, दिव्य सौन्दर्य की प्रतीक असंख्य विद्याधर युवती अद्भुत गीत-संगीत और कामोत्तेजक वातावरण से महामुनि रामचन्द्रजी तनिक भी विचलित न हुए, ना ही चंचल बने । क्योंकि वे तो पहले से ही परम ब्रह्म के रसास्वादन में परम तृप्ति का अनुभव कर रहे थे। फिर तो क्या, अल्पावधि में ही उन्हें केवलज्ञान हुआ । फलतः विवश हो, सीतेन्द्र ने अपने माया-जाल को समेट लिया । उसने भक्तिभाव से श्री रामचन्द्रजी की वन्दना, उनकी स्तुति की और केवलज्ञान का महोत्सव आरम्भ कर भक्तिभाव में लीन हो गया ।
विषयोर्मिविषोद्गारः स्यादतृप्तस्य पुद्गलैः । ज्ञानतृप्तस्य तु ध्यानसुधोद्गार - परम्परा ॥ १० ॥ ७ ॥
अर्थ : जो पुद्गलों से तृप्त नहीं हैं, उन्हें विषयों के तरंगरूप जहर की डकार आती है । ठीक उसी तरह जो ज्ञान से तृप्त हैं, उन्हें ध्यान रूप अमृत की डकारों की परंपरा होती है ।
विवेचन : पुद्गल के परिभोग में तृप्ति ? एक नहीं, सौ बार असम्भव बात है । तुम चाहे लाख पुद्गलों का परिभोग करो, उसमें लिप्त रहो, अतृप्ति की ज्वाला प्रज्वलित ही रहेगी । वह बुझने / शान्त होने का नाम नहीं लेगी । पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'अध्यात्म सार' ग्रन्थ में कैसी युक्तिपूर्ण बात कही है ।