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तृप्ति
लौट जाना पड़ता है ।
'तब भला, परम ब्रह्म की तृप्ति कैसी है ? इसका' प्रत्युत्तर किसी पद से देना असम्भव है । 'अपयस्स पयं नत्थि' पदविरहित आत्मा के स्वरुप का, किसी पद-वचन से वर्णन करना सम्भव नहीं और तो क्या, स्वयं बृहस्पति अथवा केवलज्ञानी महापुरुष भी उसका वर्णन करने में असमर्थ हैं। क्योंकि वह कथन की सीमा से सर्वथा परे जो है । इसका केवल अनुभव किया जा सकता है यदि कोई पूछे, 'शक्कर का स्वाद कैसा ?' इसका क्या जवाब हो सकता है ? क्योंकि शक्कर का स्वाद वर्णनातीत होकर अनुभव लेने की बात है ।
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अचार,
वैसे जगत के सामान्य जीव भोजनतृप्ति से भलीभाँति परिचित हैं । क्योंकि उसका अनुभव मधुर घी, मेवा-मिठाई और स्वादिष्ट सब्जियों के सेवन से प्राप्त होता है । उसमें गोरस (दूध-दही), मीठे फल, चटपटी चटनी, 1 मुरब्बों का समावेश होता है। ऐसे उत्तमोत्तम भोजन से तृप्ति का अनुभव करनेवाले सांसारिक जीव परम तृप्ति का अनुभव तो क्या, बल्कि उसे ठीक से समझने में भी सर्वथा असमर्थ हैं । परम ब्रह्म की तृप्ति का वास्तविक स्वरूप जानने और समझने के लिये घोर तपश्चर्या करनी पड़ती है । जबकि परम ब्रह्म में तृप्त बनी आत्मा इस तृप्ति में ऐसी खो जाती है कि जगत के अन्यान्येय पदार्थ उसे अपनी ओर आकर्षित नहीं करते, रिझा नहीं सकते ।
कोटिशिला पर श्री रामचन्द्रजी ने क्षपक - श्रेणी की समाधि लगा दी । आत्मानन्द... पूर्णानन्द के साथ तादात्म्य साध लिया । इसकी जानकारी बारहवें देवलोक के इन्द्र सीतेन्द्र को प्राप्त हुई, तब वह विह्वल हो उठा। क्योंकि पूर्वभव का अद्भुत स्नेहभाव उसके रोम-रोम में अब भी व्याप्त था । फलस्वरूप उसने श्री रामचन्द्रजी की समाधि को भंग करने के लिये नानाविध उपसर्ग आरम्भ कर उन्हें ध्यानयोग से विचलित करने का मन ही मन संकल्प किया । रामचन्द्रजी का मोक्षगमन सीतेन्द्र को तनिक भी न भाया । उसे तो उनके सहवास की भूख थी और थी तीव्र चाह । आनन- फानन में वह देवलोक से नीचे उतर आया । उसने अपनी दैवी शक्ति से रमणीय उद्यान, कलकल नाद करते स्रोत, हरियाली से युक्त प्रदेश... यहाँ तक कि साक्षात् वसंत ऋतु को धरती पर उतार