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________________ १२२ ज्ञानसार हमेशा याद रहे कि अनादि काल से जिसके साथ स्नेह-सम्बन्ध और प्रीतिभाव के बन्धन अटूट हैं, वे तभी टूट सकते हैं, खत्म हो सकते हैं, जब हम उसकी संगति, सहवास और उपभोग लेना सदा के लिये बन्द कर दें । पुद्गल - प्रीति के स्नेह-रज्जुओं को तोड़ने के लिये पुद्गलोपभोग से मुंह मोड़े बिना कोई चारा नहीं है । इसी तथ्य को दृष्टिगत कर, ज्ञानी महापुरुषों ने तप-त्याग का मार्ग बताया 1 है । आत्मगुणों के अनुभव से प्राप्त तृप्ति चिरस्थायी होती है । उसमें निर्भयता और मुक्ति का सुभग संगम है । जबकि जड़ पदार्थों के उपभोग से मिली तृप्ति क्षणभंगुर है । उसमें भय और गुलामी की बदबू है । अतः ज्ञानी महापुरुषों को आत्मगुणों के अनुभव से प्राप्त तृप्ति के लिये ही सदा-सर्वदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, जो लाभप्रद है और हितकारक भी । मधुराज्यमहाशाका ग्राह्ये बाह्ये च गोरसात् । परब्रह्मणि तृप्तिर्या जानास्तां जानतेऽपि न ॥१०॥६॥ अर्थ : जिनको मनोहर राज्य में उत्कट आशा और अपेक्षा है, वैसे पुरुषों से, प्राप्त न हो ऐसी वाणी से अगोचर परमात्मा के सम्बन्ध में जो उत्कट तृप्ति मिलती है, उसको सामान्य जनता नहीं जानती है । विवेचन : परम ब्रह्मानन्दस्वरूप अतल उदधि की अगाधता को स्पर्श करने की कल्पना तक उन पामर/ नाचीज जीवों के लिये स्वप्नवत् है, जो मनोहर और निरंकुश राजसत्ता की अनन्त आशा, अपेक्षा और महत्त्वाकांक्षा अपने हृदय में संजोये, संसार में दर-दर की ठोकरें खाते भटक रहे हैं । सत्ता और शासन के लाल करूँबल मदिरा के पात्र में ही जिसने तृप्ति की मिथ्या कल्पना कर रखी हो, उसे भला, परम ब्रह्म की तृप्ति का एहसास कैसे हो सकता है ? ठीक वैसे ही मृदु वाणी के मंजुल स्वरों में भी परम ब्रह्म की तृप्ति का अनुभव असम्भव है। क्योंकि वह तृप्ति तो अगम अगोचर है, पूर्णतया कल्पनातीत है । वह वचनातीत है, आन्तरिक है और मन के अनुभवों से अलग-थलग है। इसे प्राप्त करने के लिये चंचल मन और विषयासक्त इन्द्रियों को निराश होकर
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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