________________
तृप्ति
१२१
पुद्गल - प्रेम के प्रति प्रोत्साहित हो, मैं अपनी आत्मा की कदर्थना (दुर्दशा) क्यों करूं ? इसके बजाय में अपनी आत्मतृप्ति हेतु श्रेष्ठ पुरुषार्थ करूंगा ।"
यह है ज्ञानी पुरुष की ज्ञान - दृष्टि और ज्ञान-वाणी । इसी दृष्टि को जीवन में अपनाकर जड़ पदार्थों के प्रति रही आसक्ति का मूलोच्छेदन करने का उद्यम करना चाहिये ।
लेकिन सावधान ! कहीं तुमसे भूल न हो जाए... और अर्थ का अनर्थ न हो जाय ! तुम असली मार्ग से भटक न जाओ। "जड़ जड़ का उपभोग करता है, इससे भला आत्मा का क्या सम्बन्ध ? उससे आत्मा को क्या लेना-देना ?" इस तरह का विचार कर यदि मति भ्रम हो गया और जड़ पदार्थों के उपभोग
खो गये तो यह तुम्हारी सबसे बड़ी भूल होगी, भयंकर भूल - निरी आत्मवंचना । फलतः पुनः एकबार तुम उसी चक्र में फँस जाओगे। क्योंकि इससे जड़ पुद्गलों की तृप्ति में आत्म - तृप्ति मानने की अनादिकाल से चली आ रही मिथ्या मान्यता दुबारा दृढ़ बन जायेगी । भोगासक्ति का भाव गाढ़ बन जाएगा । "जड़ जड़ का उपभोग करता है, मेरी आत्मा भला कहाँ उपभोग करती है ?" आदि विचार यदि तुम्हें जड़ पदार्थों के उपभोग के लिये उकसायें, पुद्गल की सगति करने के लिये प्रेरित करें, तो समझ लो कि तुम अभी जिनेश्वर भगवन्त के वचनों से कोंसो दूर हो, बल्कि जिनवचनों को कतई समझ नहीं पाये हो । तुम्हारे लिये सम्यग्ज्ञान की मंजिल अभी काफी दूर है, तुम सम्यग्दर्शन पाने में सर्वथा असमर्थ सिद्ध हुए हो ।
वास्तव में तो तुम्हें अहर्निश इस बात का विचार करना चाहिये कि 'यदि जड़ पुद्गलों के परिभोग से मेरी आत्मा को चिरंतन तृप्ति का लाभ नहीं मिलता तो भला, जड़ पुद्गलों के उपभोग से क्या लाभ ? उनका प्रयोजन किस लिये ? इसके बजाय उसका परित्याग ही क्यों न कर लूँ ? न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी । फिर ज्ञान-ध्यान में लग जाऊँ । आत्मगुणों की प्राप्ति, वृद्धि और संरक्षण के लिये पुरुषार्थ करूँ ।' इस तरह का दृढ़ संकल्प कर आत्मा के आन्तरिक उत्साह को उल्लसित करना चाहिये । ठीक वैसे ही विविध प्रकार की तपश्चर्या, व्रतनियमादि को अंगीकार कर कामलिप्सा एवं भोगविलास के विविध प्रसंगों का परित्याग कर पुद्गलों से तृप्त होने की आदत को सदा-सर्वदा के लिये भुला देना चाहये ।