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________________ १२० ज्ञानसार तभी भविष्य का विकास और पूर्णानन्द-परम पद सम्भव है । पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्ति, यान्त्यात्मा पुनरात्मना । परतृप्तिसमारोपो, ज्ञानिनस्तन्न युज्यते ॥१०॥५॥ अर्थ : पुद्गलों के माध्यम से पुद्गल, पुद्गल के उपचयरूप तृप्ति प्राप्त करते हैं । आत्मा के गुणों के कारण आत्मा तृप्ती पाती है । अतः सम्यग्ज्ञानी को पुद्गल की तृप्ति में आत्मा का उपचार करना अनुचित है । विवेचन : किस से भला, किसको तृप्ति मिलती है ? जड पुद्गल द्रव्यों से भला चेतना आत्मा को क्या तृप्ति मिलती है ? किसी द्रव्य के धर्म . का आरोपण किसी अन्य द्रव्य में कैसे कर सकते हैं ? जड़ वस्तु के गुणधर्म अलग होते हैं, जबकि चेतन के अलग । जड़ के गुणधर्म से चेतन की तृप्ति सर्वथा असम्भव है । आत्मा अपने गुणों से ही तृप्ति पाती है। सुन्दर स्वादिष्ट भोजन से क्या आत्मा को तृप्ति मिलती है ? नहीं, शरीर के जड़ पुद्गलों का उपचय होता है । जीवात्मा उस तृप्ति का आरोप स्वयं में कर रहा है। लेकिन यह उसका भ्रम है, निरी भ्रान्ति और वह मिथ्यात्व के प्रभाव के कारण दृढ़ से दृढ़तम बन गयी है । पौद्गलिक तृप्ति में आत्मा की तृप्ति मानने की भयंकर भूल के कारण जीवात्मा पुद्गलप्रेमी बन गया है। पौद्गलिक गुणदोषों को देख, राग-द्वेष में खो गया है । राग-द्वेष के कारण मोहनीयादि कर्मों के नित नये कर्म-बन्धनों का शिकार बन, चार गति में भटक रही है । अपार दुःख, नारकीय यातना और भीषण दर्द का यही तो मूलभूत कारण है । जीव की इस भूल का उन्मूलन करने हेतु पूज्य उपाध्यायजी महाराज 'निश्चय नय' की दृष्टि का अंजन लगाकर उसके माध्यम से पुद्गल एवं आत्मा का मूल्यांकन करने का विधान करते हैं। . "मधुर शब्द-रूप-रंग-रस-गन्ध और स्पर्श कितने ही सुखद, मोहक, मधुर क्यों न हों, लेकिन हैं तो जड़ ही । इनके उपभोग से मेरी ज्ञान-दर्शनचारित्रमय आत्मा की परमतृप्ति होना असम्भव है । तो फिर उन शब्दादि परिभोग का प्रयोजन ही क्या है ? ऐसी काल्पनिक मिथ्या तृप्ति के पीछे पागल बन,
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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