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तृप्ति
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तभी भ्रम का जाल फटेगा ओर भ्रांति दूर होगी, तभी वास्तविक तृप्ति का मार्ग सुखद बनेगा । मिथ्या तृप्ति के अनादि आकर्षण का वेग कम होता जाएगा।
इस तरह आत्मा के निर्धान्त होते ही समकित को दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी। इससे आत्मा, महात्मा और परमात्मा के मनोरम स्वरूप का दर्शन होगा, वास्तविक दर्शन होगा और तब स्वाभिमुख बनी आत्मा को सही आत्मगुणों का अनुभव होता है । इसी अनुभव की परम तृप्ति आत्मा के अनन्त वीर्य को पुष्ट करती है। इस प्रकार जब वीर्य-पुष्टि होने लगे, तब समझ लेना चाहिये कि परम तृप्ति की मंजिल मिल गयी है। क्योंकि परम तृप्ति का लक्षण ही वीर्य-पुष्टि है ।
__अध्यात्ममार्ग के योगी श्रीमद् देवचन्द्रजी ने निर्धान्त बन, आत्मानुभव की परम तृप्ति करने के लिये आवश्यक तीन उपाय बताये हैं
गुरु-चरण का शरण, जिन-वचन का श्रवण, सम्यक् तत्त्व का ग्रहण
इन शरण, श्रवण और ग्रहण में जितना पुरुषार्थ होता है, उतना ही जीवात्मा अनादि भ्रांति से मुक्त होता है । आत्मतत्त्व के प्रति प्रीति-भाव उत्पन्न होता है। अनुत्तर धर्म–श्रद्धा जागृत होती है। अनन्तानुबन्धी कषायादि विकारों का क्षयोपशम होता है, गाढ कर्म-बन्धन कम होते हैं। देवों एवं सांसारिक काम-लिप्सा और भोगोपभोग के प्रति अनासक्ति पैदा होती है। आरम्भ-समारम्भ का त्याग करता है। संसार-मार्ग का विच्छेद होता रहता है और मोक्ष-मार्ग के प्रयाण की गति में स्वयं स्फूर्त बन, गतिमान होता जाता है ।
इस तरह गृहस्थाश्रम का परित्याग कर अणगार-धर्म अंगीकार करता है और कालान्तर से शारीरिक, मानसिक अपरंपार दुःखों का क्षय कर अजरामर, अक्षय पद को प्राप्त करता है। परन्तु परमपद की प्राप्ति के लिये मूलभूत मिथ्या तृप्ति के अभिमान को छोड़ना परमावश्यक है। सांसारिक पदार्थों की वास्तविकता से परिचित हो, उसमें से तृप्ति प्राप्त करने की प्रवृत्ति को तिलांजलि देना है।