________________
११८
ज्ञानसार
के वीर्य की पुष्टि करनेवाली होती है ।
विवेचन : संसार में तुम विविध प्रकार की तृप्ति का अनुभव करते हो न? वैषयिक सुखों में तुम्हें तृप्ति की डकार आती है न ? लेकिन यह निरा भ्रम है... हमारी भ्रान्ति ! केवल मृगजल, जो वास्तविकता से परिपूर्ण नहीं । यह भलीभाँति समझ लो कि सांसारिक तृप्ति असार है, मिथ्या है और मात्र भ्रम है।
सपने में षड्रसयुक्त मिष्टान्नों का भर-पेट भोजन कर लिया, सुवासित शर्बत का पान कर लिया और ऊपर से तांबूल-पान का सेवन ! बस, तृप्त हो गये ! इसीमें जीव ने अलौकिक तृप्ति का अनुभव कर लिया । लेकिन स्वप्नभंग होते ही, निद्रा-त्याग करते ही, तृप्ति का कहीं अता-पता नहीं ।
सुरा-सुन्दरी और स्वर्ण के स्वप्नलोक में निरन्तर विचरण करनेवाली जीवात्मा, जिसे तृप्ति समझने की गल्ती कर बैठी है, वह तो सिर्फ कल्पनालोक में भरी एक उडान है जो वास्तविकता से परे और परमतप्ति से कोसों दूर है। उससे जरूर क्षणिक मनोरंजन और मौज-मस्ती का अनुभव होगा, लेकिन स्थायित्व बिल्कुल नहीं । संसार के एशो-आराम और भोग-विलास की धधकती ज्वालाओं को पल, दो पल शान्त करने के पीछे भटकता जीव यह नहीं समझ पाता कि पल-दो पल के बाद ज्वाला शान्त होते ही, जो अकथ्य वेदना, असह्य यातना, ठंडे निश्वास, दीनता, हीनता और उदासीनता उसके जीवन में छा जाती है, वह हमेशा के लिये बेचैन, निर्जीव, उद्विग्न बनकर अशान्ति के गहरे सागर में डूब जाता है।
पाँच इन्द्रियों के भोग्य विषयों का ऐश्वर्य प्राप्त करने और विलासिता में स्वच्छन्दतापूर्वक केलि-क्रीडा करने के लिये जीवात्मा न जाने कैसा पामर... दीन... नि:सत्त्व और दुर्बल बन जाता है कि पूछो मत ! 'स' पर शान्त चित्त से विचार करना परमावश्यक है । उद्दीप्त वासनाओं के नग्न नृत्य में ही परमानन्द की कल्पना कर आकण्ठ डूबे मानव को काल और कर्म के क्रूर थपेड़ें में फँसकर कैसा करूणा रूदन, आक्रन्दन करना पड़ता है ! उसकी कल्पना मात्र से रोमरोम सिहर उठता है ! इसकी वास्तविकता और संदर्भ को जानना हर जीव के लिये जरूरी है !