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________________ तृप्ति स्वप्रकाशत्व : रस स्वयं में ही ज्ञान स्वरूप स्वप्रकाशित है । आनन्द : रस सर्वथा आनन्द रूप है । I चिन्मय : रस स्वयं सुखमय है लोकोत्तरचमत्कारप्राण : विस्मय का प्राण ही रस है । ११७ 'स्वाद' की परिभाषा करते हुए स्वयं 'साहित्यदर्पण' कार ने लिखा है कि 'स्वादः काव्यार्थसम्भेदादात्मानन्दसमुद्भवः' काव्यार्थ के परिशीलन से होनेवाले आत्मानन्द के समुद्भव का अर्थ ही स्वाद है । शान्तरस के महाकाव्यों के परिशीलन से पैदा हुआ स्वाद और उससे उत्पन्न महान् अतीन्द्रिय तृप्ति, षड्सयुक्त मिष्टान्न - भोजन से प्राप्त क्षणिक तृप्ति से बढ़कर होती है । यहाँ षड्स की तृप्ति उपमा है और ज्ञान - तृप्ति उपमेय । प्रस्तुत में 'व्यतिरेकालंकार' रहा हुआ है । 'व्यतिरेकालंकार' का वर्णन 'वाग्भटालंकार' ग्रन्थ में निम्नानुसार किया गया है केनचिद्यत्र धर्मेण द्वयो संसिद्धसाम्ययोः । भवत्येकतराधिक्यं व्यतिरेकः स उच्यते ॥ किसी भी धर्म में उपमान अथवा उपमेय की विशेषता होती है, तब इस अलंकार का सृजन हो जाता है । प्रस्तुत में उपमेय 'ज्ञान - तृप्ति' में विशेषता का निरुपण किया गया है । I ज्ञान-तृप्ति अनुभवगम्य है । यह किसी वाणी विशेष का विषय नहीं है । तृप्ति के अनुभव - हेतु आत्मा को अपने ही गुणों का अनुरागी बनना होता है 1 संसारे स्वप्नवन्मिथ्या तृप्तिः स्यादाभिमानिकी । तथ्या तु भ्रान्तिशून्यस्य, साऽऽत्मवीर्यविपाककृत् ॥१०॥४॥ अर्थ : सपने की तरह संसार में तृप्ति होती है, अभिमान - मान्यता से युक्त ! (लेकिन) वास्तविक तृप्ति तो मिथ्याज्ञान- रहित को होती है । वह आत्मा
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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