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________________ ११६ ज्ञानसार आवश्यक है । क्योंकि शान्तरस का यही एकमेव 'आलम्बन - विभाव' है । 1 यह सब करने के बावजूद भी 'रस' का उद्दीपन तभी और उस स्थान पर सम्भव है, जहाँ योगी पुरुषों का पुण्य - सान्निध्य हो । एकाध पवित्र, शान्त और सादा आश्रम हो । कोई रम्य और पवित्र तीर्थस्थान हो । वहाँ - हरीभरी दूब ओर चारों और हरियाली हो । जहाँ कल कल नाद की मधुर ध्वनि के साथ शीतल झरने निरन्तर प्रवाहित हों । संत - श्रमण श्रेष्ठों की शास्त्रपाठ और स्वाध्याय की धूनी मी हो । निकटस्थ पर्वतमाला पर स्थित मनोरम मन्दिरों पर देदीप्यमान कलश हों और धर्मध्वज पूरी शान से इठलाता हुआ गगन में फहराता हो । साथ ही मधुर घंटनाद से आसपास का वातावरण आनन्द की लहरियों से भरा हो। क्योंकि शान्त रस के ये सब उद्दिपन - विभाव जो हैं । 1 ऐसे मनोहारी वातावरण में 'शान्तरस' का प्रादुर्भाव होता है और तभी इसका जी भरकर आस्वादन करनेवाले मुनिराज परम सुख का / पूर्णानन्द का अनुभव करते हैं । ऐसे आह्लादक सुख की परम तृप्ति की अनुभूति तो क्या, बल्कि इसकी शतांश अनुभूति भी बेचारी इन्द्रियों को नहीं होती । षड्स भोजन का रस भी शान्तरस की तुलना में नीरस और स्वादहीन होता है । तब भला जिह्येन्द्रिय को ऐसे शान्तरस की अद्वितीय अनुभूति कैसे और कहाँ से सम्भव है ? मतलब, सर्वथा असम्भव है । इसके लिये परम पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'शान्तरस का आस्वाद' शीर्षक का प्रयोग किया है । 'साहित्य दर्पण' में शान्तरस के लिए विविध छह विशेषणों का उपयोग किया गया है। : सत्त्वोद्रेक : बाह्य विषयों से विमुख करानेवाला कोई आंतरिक धर्म अर्थात् सत्त्व । सत्त्व का उद्गम रज और तम भाव के पराभव के पश्चात् होता है और इसी में से सत्त्व के उत्कट भाव का प्रगटीकरण होता है । तथाविध अलौकिक काव्यार्थ का परिशीलन सत्त्वोद्रेक का मुख्य हेतु बनता है । अखंड : विभाव, अनुभाव, संचारी और स्थायी ये चारों भाव एकात्मक (ज्ञान और सुख स्वरूप) रूप धारण कर लेते हैं, जो परम आह्लादक और चमत्कारिक सिद्ध होते हैं ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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