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तृप्ति का प्रयोजन ही क्या है ?
नन्दनवन में पहुँचने के बाद पृथ्वी के बगीचे की क्या गरज है ? किन्नरियों की मादक सुरावलि की तुलना में गर्दभ-राग की क्या आवश्यकता? अद्वितीय रूप-यौवना अप्सराओं की कमनीयता के मुकाबले भीलनियों की सुन्दरता किस काम की ? कल्पवृक्ष के मधुर फल चखने के बाद नीम के रस का क्या प्रयोजन ? देवांगनाओं के मादक स्पर्श-सुख की विसात में, हड्डी-माँस के बने मानव की संगति का क्या मोह ? ज्ञानी वही है, जिसके मन में शब्दादि विषयों की अपेक्षा न रही हो, आकर्षण खत्म हो गया हो, संग-व्यासंग की वृत्ति नष्टप्रायः हो गयी हो । क्योंकि ज्ञानी बनने के लिये भी यही उपाय सर्वश्रेष्ठ है।
या शान्तैकरसास्वादाद् भवेत् तृप्तिरतीन्द्रिया । सा न जिह्वेन्द्रियद्वारा षड्रसास्वादनादपि ॥१०॥३॥
अर्थ : शान्तरस के अद्वितीय अनुभव से (आत्मा को जो अतीन्द्रीय अगोचर तृप्ति होती है, वह जिह्वेन्द्रिय के माध्यम से षड्सभोजन से भी नहीं होती।
विवेचन : ना ही इष्ट-वियोग का दुःख, ना ही इष्ट-संयोग का सुख ! न कोई चिन्ता-सन्ताप, ना ही किसी पुद्गल-विशेष के प्रति राग-द्वेष । न कोई इच्छा-अपेक्षाएँ, ना ही कोई अभिलाषा-महत्त्वाकांक्षाएँ ! जगत के सभी भावों के प्रति समदृष्टि, वही शान्तरस कहलाता है ।
न यत्र दुःखं न सुखं न चिन्ता, न राग-द्वेषो न च काचिदिच्छा । रसः स शान्तः कथितो मुनीन्द्रैः,
सर्वेषु भावेषु समप्रमाणः ॥ - साहित्य दर्पण ऐसे शान्तरस का जन्म 'शम' के स्थायी भाव से होता है और यह भी सत्य है कि बिना पुरुषार्थ किये अपने आप ही शान्त रस पैदा नहीं होता। उसके लिये अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसारादि भावनाओं का सतत चिन्तनमनन करते हुए विश्व के पदार्थों की निःसारता, निर्गुणता का ख्याल मन में दृढ़सुदृढ़ बनाना पड़ता है। साथ ही परमात्मा स्वरूप के संग प्रीति-भाव प्रगट करना