________________
११४
ज्ञानसार
होती है । ज्ञानदृष्टि, शरीर के सौन्दर्य के नीचे रही हड्डी - मांस के अस्थि - पिंजर को भली भांति देखती है । उसकी बीभत्सता को जानती है । अतः रूप-रंग उन्हें आकर्षित नहीं कर सकते । बल्कि उन्हें तो आत्म- - देवता के मन्दिर में प्रतिष्ठित परमात्मा के कमनीय बिम्ब की सुन्दरता इस कदर प्रफुल्लित कर देती है कि निर्निमेष नेत्रों से उसकी ओर देखते नहीं अघाते । उसके दर्शन में लयलीन हो जाते हैं, साथ ही इसमें ही परम - तृप्ति का अनुभव करते हैं ।
विश्व में ऐसा कौन सा रस है, जिसका वर्षो तक कई जन्म में उपभोग करने के पश्चात् भी मानव को तृप्ति हुई है ? तुमने जन्म से लेकर आज तक क्या कम रसों का अनुभव किया है ? तृप्त हो गये ? मिल गयी तृप्ति ? नहीं, कदापि नहीं और मिली भी तो क्षणिक ! पल दो पल के लिये, घंटे दो घंटे के लिये । इसी तरह दिन, मास और एकाध वर्ष के लिये । बाद में वही अतृप्ति !
अब तो तुम्हारे मन में किसी विशेष फूल की सुवास और विशेष प्रकार के इत्र की सुगन्ध की चाह नहीं रही न ? तृप्ति हो गयी ? अब तो उस सुवास और सुगन्ध के लिये कभी आकुल-व्याकुल, अधीर नहीं बनोगे न ? जब तक स्वगुण की सुवास के भ्रमर नहीं बनेंगे, तब तक जड़ पदार्थों की परिवर्तनशील सुवास के लिये इस संसार में निरुद्देश्य भटकते ही रहेंगे । यह सत्य और स्पष्ट है कि स्वगुणों में (ज्ञान - दर्शन - चारित्र) तल्लीन / तन्मय बनते ही भौतिक पदार्थों की मादक सौरभ भी तुम्हारे लिये दुर्गन्ध बन जाएगी ।
कोमल, कमनीय और मोहक काया का स्पर्श भले तुम आजीवन करते रहो । उसमें ओत-प्रोत होकर स्वर्गीय सुख निरन्तर लूटते रहो, लेकिन यह शाश्वत् सत्य है कि उससे तृप्ति मिलना असम्भव है । " अब बस हो गया । विषयभोग बहुत कर लिये, अब तो तृप्ति मिल गयी ।" ऐसे उद्गार भी तुम्हारे मुख से प्रकट नहीं होंगे ।
जहाँ स्वगुण में सत्... चिद्... आनन्द की मस्ती छा गयी, वहाँ परम ब्रह्म के शब्द, परम ब्रह्म का सौन्दर्य, परम ब्रह्म का रस, परम ब्रह्म की सुगन्ध और परम ब्रह्म के स्पर्श की अनोखी, अविनाशी, अलौकिक सृष्टि में पहुँच गये, तब भला जड़ पदार्थों के शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि विषयों की क्षणिक तृप्ति