SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृप्ति ११३ तृप्ति की प्राप्ति हेतु मंगल पुरुषार्थ का श्री गणेश करो । स्वगुणैरेव तृप्तिश्चेदाकालमविनश्वरी । ज्ञानिनो विषयैः किं तैर्भवेत् तृप्तिरित्वरी ॥१०॥२॥ अर्थ : यदि ज्ञानी को अपने ज्ञानादि गुणों से कालान्तर में कभी विनाश न हो, ऐसी पूर्ण तृप्ति का अनुभव हो तो जिन विषयों की सहायता से अल्पकालीन तृप्ति है, ऐसे विषयों का क्या प्रयोजन ? विवेचन : पाँच इन्द्रियों के प्रिय विषयों का आकर्षण तब तक ही सम्भव है, जब तक आत्मा ने स्वयं में झांक कर नहीं देखा है, वह अन्तर्मुख नहीं हुई है। उसके ज्ञान-नयन खोल कर अपनी ओर देखने भर की देर है कि उसे ऐसे अभौतिक रूप, रंग, गन्ध, स्पर्श और रसादि के दर्शन होंगे कि उसकी अनादिकाल-पुरानी अतृप्ति क्षणार्ध में ही खत्म हो जायेगी । सदा सर्वदा के लिये उसके पास रहनेवाली अनुपम तृप्ति की झांकी होगी ! ऐसी अद्भुत तृप्ति की प्राप्ति के पश्चात् भला, कौन जगत के पराधीन, विनाशी और अल्पजीवी विषयों की ओर आकर्षित होगा ? हृदय-मन्दिर की देवी-प्राणप्रिया के मंजुल स्वरों की मृदुता और प्रीतिरस से आप्लावित भक्तगणों की मीठी बोली सुनकर जो तृप्ति होती है, मानो या न मानो वह अल्पजीवी ही है, अल्पावधि के लिये है। क्योंकि समय के साथ प्रेयसी के स्वभाव में भी परिवर्तन की सम्भावना है और तब उसके हृदय-भेदी शब्दबाणों से तुम्हारा मन छिन्न-भिन्न होते देर नहीं लगती । ठीक वैसे ही भक्तिशून्य बने भक्तों की विषैली बातें जब तुम्हारा अपवाद फैलाती हैं, तब कहाँ जाती है वह तृप्ति ? तब क्या मादक सौन्दर्य का दर्शन कर तृप्ति मिलती है ? नहीं, यह भी असम्भव है। भले ही स्वर्गलोक की अनुपम सुन्दरी उर्वशी-सा मादक रूप क्यों न हो ? एक-सा रूप कभी किसी का टिका है ? एक ही वस्तु या व्यास को बार-बार देखने से मन कभी भरा है ? मतलब यह कि एक ही वस्तु निरन्तर आनन्द नहीं देती सुख का अनुभव नहीं कराती । ज्ञानीजनों को इसकी सही परख
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy