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________________ ११२ ज्ञानसार आज तक बहुत खाली जूठन ! अब तो जूठन खाने का दुराग्रह छोड़ो । क्या तुम नहीं जानते कि जूठन खा-खाकर तुम्हारा शरीर न जाने कैसी भयंकर बीमारी और असाध्य रोगों का घर बन गया है ? ___ श्रावक-जीवन और साधु-जीवन की पवित्र क्रियायें ही यथार्थ में कल्पवृक्ष के मधुर फल हैं, उत्तम खाद्य है । लेकिन भोजन करने के पूर्व आत्मा रुपी भाजन में रही पाप-क्रियाओं की जूठन को बाहर फेंक, कर भाजन को स्वच्छ करना आवश्यक है। मतलब यह है कि पापक्रियाओं का पूर्णरूप से त्याग कर धर्मक्रियाओं का आलम्बन ग्रहण किया जाए, तभी भोजन के अपूर्व स्वाद का अनुभव हो सकता है। भोजनोपरान्त मुखवास की भी गरज होती है न ? स्वर्गीय सुवास से युक्त समता ही मुखवास है । ज्ञान का अमृत-रस पीकर और सम्यक्-क्रिया के स्वादिष्ट भोजन का सेवन करने के पश्चात् यदि समता का मुखवास ग्रहण न किया, तो सारा मजा किरकिरा हो जाएगा । भोजन का अपूर्व आनन्द अधूरा ही रह जाएगा और तृप्ति की डकारें नहीं आयेंगी । गहन । गंभीर चिन्तन-मनन के पश्चात् प्राप्त पर तृप्ति के मार्ग को परिलक्षित कर, जब हृदयभाव-संचार की ओर प्रवृत्त होता है तभी मार्मिक प्रभाव का उद्भव होता है । यहाँ उपाध्यायजी महाराज के तर्क की कोई करामात नहीं है, बल्कि उनकी अपनी भावप्रेरित प्रतीति है । जब हमें भी इसकी प्रतीति हो जाएगी, तब हम भी सोत्साह उक्त परम तृप्ति के मार्ग पर दौड़ लगायेंगे । फलस्वरूप जगत के जड़ भोजन की और गंदे पेय पदार्थों की मोहमूर्छा मृतप्राय: बन जाएगी । ज्ञान–क्रिया और समता-भाव का जीवात्मा में प्रादुर्भाव होगा और तदुपरान्त मुनिजीवन की उत्कट मस्ती प्रकट होगी, पूर्णानन्द की दिशा में महाभिनिष्क्रमण होगा । वह सारे संसार के लिये एक चमत्कारपूर्ण अद्भुत घटना होगी। परिणाम यह होगा कि असंख्य जीव, मुनिजीवन के प्रति आकर्षित होंगे, उससे उत्कट प्रेम करने लगेंगे और उसे अपनाने के लिये उत्सुक बन कर सोत्साह आगे बढ़ेंगे। अतः हे जीव ! क्षणिक तृप्ति का पूर्णरूप से परित्याग कर परम / शाश्वत्
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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