________________
तृप्ति
१११
ऐसे अलौकिक ज्ञानामृत को छोड़कर भला, किसलिये जगत के भौतिक पेय का पान करने के लिये ललचाना ? अपने आप में मलिन, पराधीन और क्षणार्ध में विलीन हो जानेवाले भौतिक पेय पदार्थों का पान करने से जीवात्मा का मन राग-द्वेष से मलिन बनता है । साथ ही इन पेय पदार्थों की प्राप्ति हेतु प्रायः अन्य जीवों की गुलामी, अपेक्षा और खुशामदखोरी करनी पड़ती है । अवांछित लोगों का मुँह देखना पड़ता है और यदि मिल भी जाये तो उनका सेवन क्षणिक सिद्ध होता है । पुनः इन की प्राप्ति के लिये पहले जैसी ही गुलामी और चाटुकारिता ! तब कहीं घंटे दो घंटे का आनन्द ! ऐसी परिस्थिति में संसार के विषचक्र में फंसा जीव भला, किस तरह अन्तरंग / आन्तरिक आनन्द - महोदधि में गोते लगा सकता है ? उसके लिये प्रायः यह सब असम्भव है । इसके बजाय बेहतर है कि भौतिक पेय पदार्थों का पान करने की लत को ही छोड़ दिया जाय । क्षणिक मोह को त्याग दिया जाए। मेरे आत्मदेवता ! जागो, कुम्भकर्णी नींद का त्याग करो और ज्ञान से छलकते अमृतकुम्भ की तरफ नजर करो। इसे अपनाने के लिये तत्पर बनो । प्रस्तुत अमृत- कुम्भ को निरन्तर अपने पास रखो और जब कभी तृषा लगे, तब जी भर कर इसका पान करो । यह करने से ना ही रागद्वेष से मलिन बनोगे, ना ही स्वार्थी लोगों की खुशामद करनी पड़ेगी और ना ही इस संसार में दर-दर भटकने की बारी आएगी ।
तब यह प्रश्न खड़ा होगा कि भोजन कौन सा किया जाए ? लेकिन यों घबराने से काम नहीं चलेगा । शान्ति से विचार करोगे, तो उसका मार्ग भी निकल आएगा । सर्व रसों से परिपूर्ण, अजेय शक्तिदायी और यौवन को अखंड रखनेवाला भोजन भी तुम्हारे लिये तैयार है । तुम इसे ग्रहण करने के लिये अपना भोजन - पात्र जरा खोलो । उफ, तुम्हारा पात्र तो गंदा है । उसमें न जाने कैसी गंदगी है ? दुर्गन्ध उठ रही है ! पहले अपने पात्र को स्वच्छ करो । अस्वच्छ और गंदे पात्र में भला ऐसा उत्तम और स्वादिष्ट भोजन कैसे परोसा जाये ? गंदे पात्र में ग्रहण किया गया सर्वोत्तम भोजन भी गन्दा, अस्वच्छ और दुर्गन्धमय होते देर नहीं लगती । वह असाध्य बीमारी और रोगों का मूल बन जाता है । अरे भाई, तुम्हारे सामने ऐसा सरस, स्वादिष्ट और सर्वोत्तम भोजन तैयार होने पर भी भला तुम्हें जूठे भोजन का मोह क्यों है ? क्या तुम जूठन का मोह छोड़ नहीं सकते ?