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१०. तृप्ति
अतृप्त मानव संसार की गलियों में भटक-भटक कर तृप्ति की परिशोध कर रहा है। उत्तरोत्तर उसकी अतृप्ति एवं तृष्णा बढ़ती ही जा रही है। अतिशय श्रम, संताप, बेचैनी और उद्विग्नता से थका-हारा वह निरूद्देश्य, जहाँ आशा की धुंधली किरण देखी, वहाँ अनायास आगे बढ़ जाता है। ऐसे तन-मन से बावरे बने मानव को यहाँ परम तृप्ति का मार्ग बताया गाया है। इस पर चलकर ऐसी तृप्ति प्राप्त कर लो कि फिर जीवन में दुबारा अतृप्ति की तड़प और बेचैनी पैदा होने का सवाल ही न उठे । अमृत-सिंचन से जीवन-बगिया पुनः महक उठेगी। जहाँ नजर डालोगे, सर्वत्र तृप्ति ही तृप्ति के दर्शन होंगे। साथ ही कभी न अनुभव किया हो, ऐसे परमानन्द की प्राप्ति होगी।
अतृप्ति की धधकती ज्वालाओं को शान्त कर जीवन को हरा-भरा बनाने हेतु प्रस्तुत अष्टक का पठन-मनन करना अत्यावश्यक है ।
पीत्वा ज्ञानामृतं भुक्त्वा, क्रियासुरलताफलम् । साम्यताम्बूलमास्वाद्य, तृप्ति याति परां मुनिः ॥१०॥१॥
अर्थ : ज्ञान रुपी अमृत का पानकर और क्रिया रुपी कल्पवृक्ष के फल खाकर समता रुपी तांबूल चखकर साधु परम तृप्ति का अनुभव करता है ।
विवेचन : परम तृप्ति, जिसको पाने के बाद कभी अतृप्ति की आग प्रदीप्त न हो, वह पाने का कैसा तो सुगम । सरल और निर्भय मार्ग बताया है ! हमेशा ज्ञानामृत का मधुर पान करो, क्रिया-सुरलता के फलों का रसास्वादन करो और तत्पश्चात् उत्तम मुखवास से मुँह को सुवासित करो ।