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ज्ञानसार
थे । ध्यान की साधना का आवेग उनके रोम-रोम में संचारित था । सहसा राजसैनिकों ने उन्हें दबोच लिया । उनकी चामड़ी उधेड़ने पर उतारू हो गये । खून की प्यासी छुरी लेकर तैयार हो गये । खंधक मुनि तनिक भी विचलित न हुए । टस से मस न हुए। वे ध्यानसुधा की डकारें खा रहे थे । उनका प्रशान्त मुखमण्डल पूर्ववत् ज्ञान-साधना से देदीप्यमान था । नयनों में शान्ति और समता के भाव थे। सैनिकों ने चमड़ी उधेड़ना आरम्भ किया । रक्तधारा प्रवाहित हो उठी। जमीन रुधिराभिषेक से सन गयी । मांस के कतरे इधर-उधर उड़ने लगे । फिर भी यह सब महामुनि की ज्ञानसुधा की डकारों की परम्परा को नहीं तोड़ सका। वे पूर्ववत् ज्ञान-समाधि लगाये स्थितप्रज्ञ बने रहे । उनकी अविचलता ने, उच्चकोटि की ध्यान-साधना ने उन्हें धर्मध्यान से शुक्लध्यान मंजिल की और गतिमान कर दिया । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय - इन घाती कर्मों का क्षय करके वे केवलज्ञान के अधिकारी बन गये । उनके सारे कर्मबन्धन टूट गये और भव-भवान्तर के फेरे खत्म हो गये ।
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तात्पर्य यह है कि ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् ज्ञानी के मन में उसके मूलभूत गुण, तत्त्व अविरत संचारित रहने चाहिये । उसे उसका बार-बार अवगाहन करते रहना चाहिये । तभी ज्ञान–अमृत में परिवर्तित होता है और उसका सही अनुभव मिलता है । तत्पश्चात् सांसारिक सुख, भोगोपभोग अप्रिय लगते हैं, उनके प्रति घृणा की भावना अपने आप पैदा हो जाती है। शास्त्रार्जन और शास्त्र - परिशीलन से आत्मा ऐसी भावित बन जाती है कि उसके लिये ज्ञान - ज्ञानी का भेद नहीं रहता । ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिये प्रस्तुत अष्टक में बताये गये उपायों का जीवन में क्रमशः प्रयोग करना जरुरी है
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सुखिनो विषयातृप्ता, नेन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यो ।
भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरंजनः ॥१०॥८ ॥
अर्थ : यह आश्चर्य है कि विषयों से अतृप्त देवराज इन्द्र एवं कृष्ण भी सुखी नहीं हैं। संसार में रहा, ज्ञान से तृप्त एवं कर्ममल रहित साधु, श्रमण ही सुखी है।
विवेचन : संसार में कोई सुखी नहीं है । विषयवासना के विष प्याले