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पूरे उत्तरी भारत में अपनी तरह के अनुपम इस तीर्थ के शिल्प का संयोजन सुप्रसिद्ध सोमपुरा श्री अमृतभाई त्रिवेदी के संयोजन में सम्पन्न हुआ है । तीर्थ स्थापना के चौदह वर्ष बाद भी शिल्प के सौंदर्यीकरण का कार्य अनवरत चालु है ।
तीर्थ की अंजनशलाका - प्रतिष्ठा समारोह परम वंदनीय आचार्य भगवंत श्रीमद् पद्मसागर सूरीश्वरजी महाराज आदि ठाणा एवं मुनिराज ( वर्तमान में आचार्य) श्री धर्मधुरंधर विजयजी म. सा. की पावन निश्रा में माघ शुक्ला ६, रविवार, दिनांक ५ फरवरी १९९५ को भारत भर से उपस्थित सहस्त्रों साधर्मिकों के सान्निध्य में संपन्न हुआ ।
मंदिर के सन्निकट, तीर्थ परसर के तिमंजिले भवन, में उपाश्रय, साधर्मिक भक्तिगृह, आयंबिल खाता एवं अतिथिगृह की सुविधायें उपलब्ध हैं । तीर्थ परिसर में ही ६०० से ८०० यात्रियों कि निवास हेतु 'नाहर भवन' धर्मशाला अवस्थित है । सम्मेत शिखरजी यात्रा संघों एवं अन्य महोत्सवों में भोजन व्यवस्था हेतु परिसर के मध्य भाग में भव्य 'जगन्नाथ सरधी - देवी उत्सव पंडाल' निर्मित है। वर्तमान में तीर्थद्वार एवं तीर्थ पेढ़ी का निर्माण कार्य
है ।
सुश्रावक श्री शोरीलालजी के अन्तर्मन की भावना प्रारम्भ से ही यह रही थी कि तीर्थ परिसर में नवकार पीठ की स्थापना हो । वर्तमान समय में इस वृहद् योजना के प्रारम्भ में उपाश्रय भवन में नवकार पीठ स्थापित है और तीर्थयात्रियों के ध्यान - स्मरण हेतु सुविधा उपलब्ध है । कालांतर में भव्य नवकार पीठ के निर्माण की योजना है ।
नवकार - पीठ के अन्य सोपान के रूप में पुस्तक प्रकाशनकी योजना का प्रथम पुष्प अध्यात्मयोगी आचार्य कलापूर्ण सूरिजी म. सा. की गुजराती पुस्तक 'ध्यान- विचार' का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ था । इस प्रकाशन सरिता में अब तक 'ध्यान विचार' के उपरांत 'पंचप्रतिक्रमण एवं नवस्मरण प्रबोध टीकानुसारी (अर्थ सहित)', 'मिले मन भीतर भगवान', 'नमस्कार