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क्रिया
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क्षय अथवा अनाहारीत्व गुण की वृद्धि प्रायः असम्भव है।
गुरुसेवा : विनय, विवेक, आज्ञांकिता, लघुता, नम्रतादि, गुणों की अभिवृद्धि के लिये गुरुसेवा और गुरुभक्ति जैसी क्रियायें अनन्य साधन हैं । सावधानी के साथ यदि इसका अवलम्बन लिया जाय, तो गुण-वृद्धि दूर नहीं है । अन्यथा जो गुण हैं, उनका लोप होते देर नहीं लगती।
तीर्थयात्रा : परमात्मा के प्रति प्रीति, भक्ति और श्रद्धाभाव प्रदर्शित करने के लिये और स्व-गुणवृद्धि हेतु तीर्थयात्रा एक महत्त्वपूर्ण आलम्बन है । विविध तीर्थों की यात्रा, जीवात्मा में परमेश्वर के प्रति अगाध भक्ति अनुपम प्रीति और अनिवर्चनीय श्रद्धाभाव पैदा करती है और गुणवृद्धि करने में सहायक सिद्ध होती है । लेकिन प्रस्तुत गुणों को विकसित करने की तमन्ना होना आवश्यक है। गुणों के बिना सारा जीवन सूना लगना चाहिये ।
इस तरह दान, शील, तप, स्वाध्याय, संलेखना, अनशन इत्यादि विविध अभिग्रह वगैरह क्रियायें नित नये गुणों के विकास और वृद्धि के लिये करनी चाहिये । इसके अभाव में गुणप्राप्ति, गुणवृद्धि और गुणरक्षा प्रायः असम्भव है। क्योंकि छद्मस्थ जीवों के संयम-स्थान, अध्यवसाय-स्थान चंचल होने के साथसाथ लोप होने के स्वभाववाले हैं । केवलज्ञानी समस्त गुणों से युक्त होते हैं । अतः उनके लिये गुणक्षय अथवा गुणों के पतन जैसा कोई भय नहीं है । साथ ही उनका संयमस्थान अप्रतिपाती-स्थिर होता है ।
वचोऽनुष्ठानतोऽसंगाक्रियासंगतिमंगति । सेयं ज्ञान क्रियाऽभेदभूमिरानन्दपिच्छला ॥९॥८॥
अर्थ : वचनानुष्ठान से असंग क्रिया की योग्यता प्राप्त होती है। यह ज्ञान और क्रिया की अभेद भूमि है, साथ ही आत्मा के अभेद से आप्लावित
- विवेचन : जब देवाधिदेव जिनेश्वर भगवन्त की प्रीति-भक्ति में जीवात्मा पूर्णरूप से आप्लावित हो जाए,- आत्मा का एक-एक प्रदेश भक्तिभाव के सुगंधित जल से अभिषिक्त हो जाता है, तब उसमें ऐसा विशुद्ध वीर्य उल्लसित