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ज्ञानसार
हो उठता है कि जिसके माध्यम से अपने प्रियतम परमात्मा के गहन वचनों को यथार्थ रुप में समझने में शक्तिमान बन जाता है और तदनुसार यशासम्भव पुरुषार्थ करने के लिये कटिबद्ध बनता है ।
फलतः उत्सर्ग और अपवाद, निश्चय और व्यवहार, नय और प्रमाणादि के वास्तविक ज्ञान के साथ-साथ सर्वत्र वह आत्मा के लिये अनकल प्रवत्ति करने के लिये तत्पर बन जाता है । तब वह 'असंग-अनुष्ठान' की सर्वोत्तम योग्यता प्राप्त करता है। ऐसी स्थिति में ज्ञान और क्रिया के बीच रहा अन्तर / भेद अपने आप दूर हो जाता है और दोनों परस्पर एक दूसरे के भाव में समरस हो जाते
असंग-अनुष्ठान की भूमि में भाव स्वरुप क्रिया, शुद्ध उपयोग और शुद्ध वीर्योल्लास में एकाकार हो जाती है। तीनों का स्वरुप भिन्न नहीं रहता, बल्कि सुभग-सुन्दर त्रिवेणी संगम बन जाता है । वे अपने अलग अस्तित्व को तिलांजलि देकर परस्पर तादात्म्य साध लेते हैं । तब आत्मा स्वाभाविक आनन्द के अमृतरस में तरबतर हो जाती है । फलतः इससे परम तृप्ति का अनुभव करते हुए 'जिनकल्पी' 'परिहार विशुद्धि' साधु / महात्मा इस जीवन में परम सुख का रसास्वादन करते रहते हैं।
ऐसी सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने के लिये निम्नांकित चार बातें बतायी
१. परमात्मा जिनेश्वर देव के प्रति. अनन्य प्रीति । २. परमात्मा जिनेश्वर देव के प्रति श्रद्धा-भक्ति । ३. परमात्मा जिनेश्वर देव के वचनों का सर्वांगीण ज्ञान ।
४. उक्त ज्ञान के माध्यम से जिनवचनानुसार जीवन पावन करने हेतु महापुरुषार्थ ।
जब परमात्मा जिनेश्वर देव के प्रति प्रीति-भक्ति का भाव हो जाता है, तब संसार के भौतिक / पौद्गलिक पदार्थों के साथ स्नेह-सम्बन्ध नहीं रह पाता। शब्द, रूप, रस और गन्ध के बन्धन टूटने लगते हैं। मोहान्ध कामान्ध जीवों का