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________________ ज्ञानसार कार्यान्वित करता रहता है । भले ही उसका प्रयास, अपनाया हुआ मार्ग अपार कष्ट और अथक परिश्रमवाला क्यों न हो? लेकिन वह लक्ष्य - पूर्ति के लिये सदा-सर्वदा सचेत, सजग और सन्नद्ध रहता है और जैसे-जैसे धन-वृद्धि होती जाती है, उसके पुरुषार्थ में बढ़ोतरी होती जाती है । उसका पुरुषार्थ दीर्घकालीन होता जाता है और यह सब करते हुए उसके उत्साह का ठिकाना नहीं रहता । १०६ ठीक उसी तरह धार्मिक क्रियात्मक साधना, गुणवृद्धि हेतु खोली गयी दुकान ही है और क्रियात्मक व्यापारी की प्रत्येक क्रिया का लक्ष्य / ध्येय गुणों की वृद्धि ही होना चाहिए । जिन-जिन क्रियाओं के माध्यम से गुणवृद्धि होने की सम्भावना है, भले ही वे क्रियायें कष्टप्रद और परिश्रम से परिपूर्ण क्यों न हों, गुणवृद्धि के अभिलाषी को हँसते-हँसते करनी चाहियें और जैसे-जैसे गुणवृद्धि होती जायेगी, वैसे-वैसे उसके पुरुषार्थ में एक प्रकार की स्थिरता और दीर्घकालीनता का आविर्भाव होता जाएगा । फलतः उक्त क्रिया का आनन्द ब्रह्मानन्द–चिदानन्द में परिवर्तित होते विलम्ब नहीं होगा । यहाँ हम कुछ महत्त्वपूर्ण क्रियाओं पर विचार करते हैं । सामायिक : इसका ध्येय / लक्ष्य समतागुण की वृद्धि होना चाहिये । जैसे-जैसे सामायिक की क्रिया कार्यान्वित होती जाये, वैसे-वैसे आत्म-कोष में समतागुण की वृद्धि होनी चाहिये और सुख-दुख के प्रसंग पर उन्माद - शोक की वृत्तियाँ मन्द होनी चाहियें । साथ ही प्रतिदिन, प्रतिमाह और प्रतिवर्ष हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिये कि सामायिक क्रिया के माध्यम से हमने क्या पाया ? राग-द्वेष कम हुए हैं या नहीं ? क्रोध - वृत्ति में कमी हुई है अथवा नहीं ? वैसे सामायिक की क्रिया निरन्तर गुणवृद्धि करनेवाली और समतागुण की एकमेव संरक्षण-शक्ति है । प्रतिक्रमण : पापजुगुप्सा, पापनिन्दा, पाप-त्याग के गुण की वृद्धि के लिये क्रिया की जाती है । इसके माध्यम से गुणवृद्धि के साथ-साथ जीवात्मा पाप - स्खलन से बच जाता है । तपश्चर्या : आत्मा के अनाहारीपन के गुण की वृद्धि के लिये और आहारसंज्ञा के दोष के क्षय हेतु प्रस्तुत क्रिया अनिवार्य है । इसके बिना दोष
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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