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________________ क्रिया १०५ ऐसे समय में पूज्य उपाध्यायजी महाराज विश्वास दिलाते हैं कि अगर इस तरह दृढ़ संकल्प से वह साधुजीवन की साधना में लग जाए, तो अल्पावधि में ही पुनः व्रत के पवित्र भाव से प्लावित होते देर नहीं लगेगी । शुभ क्रिया तो शुभ भाव की बाड़ है, कंटीली और मजबूत । यदि उसमें कोई छेद कर दे, तो अशुभ भाव रुपी पशुओं को घुसते देर नहीं लगेगी और शुभभाव की हरी-भरी फसल को पल भर में चट कर जायेंगे । गँवार किसान भी यह भली-भाँति जानता है कि बाड़ के बिना फसल की रक्षा नहीं हो सकती। तब भला बुद्धिमान साधक इस तथ्य और सत्य को क्या नहीं समझ सकता ? वह जरूर समझता है । लेकिन क्या करे, राह जो भटक गया है । महाव्रत । अणुव्रतादि के भाव और दर्शन-ज्ञान-चारित्र के भावों की सुरक्षा तथा संरक्षण के लिये ही अनंतज्ञानी परमात्मा जिनेश्वरदेव ने तप-संयमादि अनेकविध क्रियाओं का निरूपण किया है। अतः क्रियाओं का परित्याग कर शुभ-भाव में वृद्धि और रक्षा की बात करना सरासर मूर्खता है। यह शाश्वत सत्य है कि अशुभ भावों की जन्मदात्री अशुभ क्रियायें ही हैं, जिसे कोई झुठला नहीं सकता। अत: इनका सदन्तर त्याग ही मोक्ष-मार्ग का सुनहरा सोपान है, जिसका आरोहण करना हर साधक का परम कर्तव्य है। गुणवृद्धयै ततः कुर्यात् क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते ॥९॥७॥ अर्थ : अतः गुण की वृद्धि हेतु अथवा उसमें से स्खलन न हो जायें इसलिये क्रिया करना आवश्यक है । एक संयम स्थानक तो केवलज्ञानी को ही होता है। विवेचन : जीवात्मा का साधना के समय केवल एक ही लक्ष्य, एक ही ध्येय और एक ही आदर्श रहना चाहिये और वह है, 'गुणवृद्धि' । प्रत्येक शुभ/ शुद्ध क्रिया का लक्ष्य । ध्येय और आदर्श एक मात्र आत्मगुणों की अभिवृद्धि ही होना चाहिये । व्यापारी दुकान के जरिये सिर्फ एक ही मकसद पूरा करने में हमेशा जुटा रहता है और वह मकसद है धनवृद्धि । धन बटोरने के लिये, सम्पत्ति इकट्ठी करने के लिये वह हर सम्भव मार्ग अपनाता है, उपाय और योजनाओं को
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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