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ज्ञानसार
अन्तर की गहराईयों में तप एवं संयम, ज्ञान और वैराग्य, दान और शील के भावों की वृद्धि होने लगेगी । तप और संयम के अनुकूल जो भी अनुष्ठान करो, वह निर्विवाद रूप से सुदृढ और उग्र पुरुषार्थ रुप होना चाहिए ।
___ यह बात उस पतित आराधक को परिलक्षित कर कही गयी है, जो साधु-वेष में है, जिसका दैनन्दिन आचरण और दिनचर्या भी साधु जैसी ही है, लेकिन जो भाव-साधुता के भाव से कोसों दूर चला गया है। जिसमें संयमभाव का अंश तक नहीं हैं । ठीक उसी तरह वेश श्रावक की है, लेकिन जिसमें श्रावकजीवन के लिये आवश्यक तप-संयम-भाव का पूर्णतया अभाव है । ऐसी विषम परिस्थिति में यदि उसे साधु । श्रावक को पुनः शुभ भाव में स्थिर होना है, अपने मूल स्वरुप को प्राप्त करना है, तो उसे दृढ़ संकल्प के साथ ज्ञानदर्शन चारित्र के लिये पोषक क्रियायें करने का पुरुषार्थ करना चाहिये ।
मान लो, किसी साधु का मन विषय वासना से उद्दीप्त हो गया। उसका ब्रह्मचर्य का भाव भंग हो गया । तब वह सोचने लगे कि "मैं विषय-वासना से पराजित हो गया हूँ। मैं चौथे व्रत का पालन करने में पूर्ण रुप से असमर्थ हँ । अतः अब साधुता में क्या रखा है ? क्यों न इसका (साधु-जीवन का) परित्याग कर गृहस्थ बन जाऊँ... ?" तब उसका उत्कर्ष और उत्थान प्रायः असम्भव है । पुनः वह संयम-मार्गी हर्गिज नहीं बन सकता । लेकिन इससे विपरीत, उसे यों सोचना चाहिए कि "अरे, यह मेरी कैसी दुर्बलता है ? मुझमें कैसी कमी रह गयी है कि साधुता ग्रहण करने के बावजूद भी मैं साधु-जीवन के मूलाधार ऐसे ब्रह्मचर्य व्रत के भाव से च्युत हो गया हूँ, निःसत्त्व और पंगु बन गया हूँ, अब मेरी आत्मा का क्या होगा? मैं परम विशुद्धि की मंजिल कैसे पा सकूँगा? फिर एक बार मैं संसार-सागर में डूब जाऊँगा ? मेरा सत्यानाश हो जायेगा यह मुझे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं । स्वीकार नहीं । अतः मैं प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर खोये हुए ब्रह्मचर्य के भाव को दुबारा पाये बिना चैन की साँस न लूँगा। मैं ब्रह्मचर्य का दृढ़ता से पालन करूँगा । उन्माद और पागलपन को छोड़ दूंगा । घोर तप करूँगा, मन को ज्ञान की श्रृंखला से जकड़े रखूगा । चारित्र की हर क्रिया में अप्रमत्त बन दुष्ट आचार-विचारों को दुबारा घुसने न दूंगा। मुझे अपने संकल्प में पराजित होकर पीछे नहीं हटना है ।