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ज्ञानसार
है, ऐसी कोई भी क्रिया शुभ बाह्य भाव है । अशुभ पाप-क्रियाओं की अनादिकालीन आदत से छुटकारा पाने के लिये धर्म-क्रियाओं का आश्रय लिये बिना और कोई चारा नहीं है । उसके बिना सब व्यर्थ है ।
अगर तुम्हारा पुत्र तुमसे कहे कि 'पिताजी, मुझे शाला में दाखिल क्यों करते हो? विशेष प्रकार की वेशभूषा करने का आग्रह क्यों कर रहे हो? अमुक पुस्तकों का ही मनन-पठन करने का आदेश क्यों देते हो ? अध्यापक के पास जाकर शिक्षा ग्रहण करने का उपदेश क्यों देते हो ? क्योंकि यह सब व्यर्थ है, निरर्थक है, बल्कि किसी काम का नहीं । ज्ञान तो आत्मा का गुण है और आत्मा से ही ज्ञान का प्रगटीकरण होता है । तब नाहक शाला में जाकर विद्याध्ययन करने का कष्ट क्यों उठाना ? अतः मैं शाला में नहीं जाऊँगा, घर पर ही रहूँगा, खूब मौज-मस्ती करूँगा और टी. वी.-वीडियो देखुंगा ।' तब क्या तुम उसकी बात को मान लोगे, स्वीकार कर लोगे? उसका शाला में जाना बन्द कर दोगे? घर पर बिठा दोगे?
एकाध सैनिक अपने नायक से जाकर कहे : "आप कवायद क्यों करवाते हैं ? किसलिये मीलों तक दौड़ लगवाते हैं ? नाना प्रकार की कसरत करवाते हैं ? शस्त्र-संचालन का प्रशिक्षण क्यों देते हैं ? बल और शक्ति आत्मा का गुण है और आत्मा में से ही पैदा होता है। अत: यह सब निरर्थक है. सारी क्रियायें निरी बकवास हैं।" क्या नायक ऐसे सैनिक को पल भर के लिये भी सह लेगा ? उसे सेना में से भगा नहीं देगा ?
आत्मगुण के लिये आवश्यक क्रिया अनुष्ठान करना ही पड़ेगा । तभी सही आत्मगुणों का प्रगटीकरण सम्भव है । अनन्त ज्ञानी जिनेश्वरदेव ने आत्मविशुद्धि के लिये जिन कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रक्रियाओं को महत्त्वपूर्ण बताया है, उन्हें श्रद्धा-भाव से करना ही पड़ेगा।
पूँह में कौर डाले बिना कहीं उदरतृप्ति हुई है ? यदि हमें परम तृप्ति का सुख चखना है तो मुँह में कौर डालने की क्रिया नि:संदिग्ध भाव से करनी ही पड़ेगी । ठीक उसी तरह यदि परम आत्म-सुख का अनुभव करना है, तो उसके लिये आवश्यक क्रियाओं को करना ही पड़ेगा ।