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क्रिया
गुणवबहुमानादेर्नित्यस्मृत्या च सत्क्रिया । जातं न पातयेद् भावमजातं जनयेदपि ॥९॥५॥
अर्थ : अधिक गुणवन्त के बहुमानादि से तथा अंगीकृत नियमों को नियमित सम्भालने से शुभ क्रिया, प्रगट हुए शुभ भाव को न मिटाये, न नष्ट करे, साथ ही जो भाव अभी प्रगट नहीं हुए हैं, उन्हें उत्पन्न करती है ।
विवेचन : अन्तरात्मा से प्रगट शुभ... पवित्र...उन्नत... मोक्षानुकूल भाव तो हमारी अमूल्य निधि है, सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति है । इसका संरक्षण करना हमारा परम कर्तव्य है। प्रस्तुत भाव की संपदा के माध्यम से ही हम परमपद की प्राप्ति कर सकेंगे।
भाव की भी अपनी विशेषता है। यदि प्रति समय सावधानी से उसका संरक्षण न करें, तो इसे खत्म होते देर नहीं लगती । ऐसे शुभ, लेकिन चंचल भावों का संरक्षण करने के लिये सात उपाय बताये हैं, जो सरल हैं और सुन्दर हैं । लेकिन इन उपायों का अवलम्बन तभी किया जा सकता है जब शुभ भावों का समुचित मूल्यांकन किया गया हो, बाह्य भौतिक सम्पत्ति से भी बढ़कर अनंत गुना महत्त्व उसे दिया गया हो । शुभ भावों की रक्षा के लिये कुछ भी करने की तैयारी होनी चाहिये । उसके लिये जो भोग देना आवश्यक है, देने के लिये हमें सदैव तत्पर रहना चाहिये ।
सत्य के पवित्र भाव का संरक्षण करने हेतु राजा हरिश्चन्द्र ने अपना सब कुछ त्याग दिया था । राजसी ठाठ-बाठ, वैभव-विलास, यहाँ तककी सर्वस्व त्याग कर, चंडाल के हाथ खुद बिक जाने तक का ज्वलन्त बलिदान किया था। अहिंसा के उन्नत भाव की रक्षा हेतु महाराजा कुमारपाल ने अपने पैर की चमड़ी काटकर मकोड़े को बचा लिया था । सतीत्व के सर्वोत्तम भाव के जतन के लिये सीता ने लंकापति रावण की अशोक वाटिका में कष्ट सहन किये थे। पितृ-वचन की रक्षा हेतु श्री राम ने हँसते-हँसते अयोध्या का राजा-त्याग कर वनवास की राह पकडना पसन्द