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________________ ९. क्रिया "यदि धार्मिक क्रियायें सम्पन्न न की जाये तो क्या नुकसान है ?" यह प्रश्न वर्षों से किया जा रहा है । लेकिन कोई भूलकर भी यह प्रश्न नहीं करता कि 'यदि पाप-क्रिया न करें, तो क्या हर्ज है ?' सचमुच ऐसा प्रश्न कोई नहीं उठाता और उसका भी कारण है ! क्योंकि पाप-क्रियायें सबको पसन्द हैं। यदि धर्म पसन्द है, तो धार्मिक क्रियायें भी पसन्द होनी ही चाहिये । मोक्ष इष्ट है, तो मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक क्रियायें इष्ट होनी ही चाहिये । ग्रन्थकार ने यहाँ जीवन में धार्मिक क्रियाओं की आवश्यकता और अनिवार्यता को समझाने का सफल प्रयत्न किया है। उनकी बातें कितनी सार्थक और अकाट्य हैं, यह समझने के लिये प्रस्तुत अष्टक का अभ्यास अवश्य करें। ज्ञानी क्रियापरः शान्तो, भावितात्मा जितेन्द्रियः । स्वयं तीर्थों भवाम्भोघेः परांस्तारयितुं क्षमः ॥९॥१॥ अर्थ : सम्यग्ज्ञान से युक्त, क्रिया में तत्पर, उपशम युक्त, भावित और जितेन्द्रिय (जीव) संसार रुपी समुद्र से स्वयं पार लग गये हैं और अन्यों को पार लगाने में समर्थ हैं। विवेचन : मानव-जीवन का श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है-भवसागर से स्वयं पार उतरना और अन्यों को पार लगाना । यदि गंगा-यमुना-ब्रह्मपुत्रा सदृश भौतिक नदियों को पार करने के लिये ज्ञान और क्रिया की आवश्यकता है, तब भव के भीषण, रौद्र और तूफानी समुद्र को पार करने के लिये भला ज्ञान और क्रिया की आवश्यकता क्या नहीं है ?
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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