SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रिया ९३ आवश्यकता है और सौ बार है । लेकिन उसकी आवश्यकता तभी महसूस होती है, जब भवसागर भीषण, रौद्र और तूफानी लगता हो । जब तक भवसागर प्रशान्त, सुखदायक एवं सुन्दर, अति सुन्दर दिखायी देता है, तब तक जीवात्मा को ज्ञान और क्रिया का महत्त्व समझ में नहीं आता । जीवन में उसकी आवश्यकता का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। ___ भवसागर से पार लगने और अन्य जीवों को पार लगाने हेतु यहाँ निम्नांकित पाँच बातें कही गयी हैं - (१) ज्ञानी : जिस भवसागर को पार करना है, उसकी भीषणता की जानकारी लिये बिना पार उतरना सम्भव नहीं है । साथ ही, जिनके आधार से तिरना है, उन कृपानिधि परमात्मा और करुणामय गुरुदेव का वास्तविक परिचय प्राप्त किये बिना कैसे चलेगा ? जिसमें सवार होकर पार उतरना है, उस संयम-नौका की सम्पूर्ण जानकारी भी हाँसिल करना जरुरी है। साथ ही सागर-प्रवास के दौरान आनेवाली नानाविध बाधायें, विघ्न और संकट, उस समय अपेक्षित सावधानी, सुरक्षाव्यवस्था और आवश्यक साधन-सामग्री का ज्ञान भी हमें होना चाहिए । २. क्रियापर : भवसागर पार उतरने के लिये देवाधिदेव जिनेश्वर भगवन्त ने जो क्रियायें दर्शायी हैं, उन्हें अंजाम देने के लिये सदा सर्वदा तत्पर होना जरूरी है। तत्परता का मतलब है-काल-स्थान और भाव का औचित्य समझ, हर सम्भव क्रिया करना । उसे करते हुए तनिक भी आलस्य, बेठ, अविधि अथवा उदासीनता न हो, बल्कि सदैव अदम्य उत्साह और असीम उल्लास होना चाहिये । ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्रादि के आचारों का यथाविधि परिपालन होना चाहिये । हालाँकि भवसागर से पार उतरनेवाली भव्यात्माओं में यह स्वाभाविक रूप से होता है । ३. शान्त : शान्ति... समता... उपशम की तो अत्यन्त आवश्यकता है। भले ही ज्ञान हो, क्रिया हो, परन्तु उपशम का पूर्ण रूप से अभाव है, तो पार लगना असम्भव
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy