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त्याग
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आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का अनंत गुणमय स्वरूप का ध्यान, कठोर कर्मों के मर्म का छेदन कर देता है । वह तीव्र से तीव्र कर्म-बन्धनों को तोड़ने में, उसे जड़मूल से उखाड़ फेंकने में समर्थ है। जब तक हमें वास्तविक अनंत गुणमय आत्मस्वरुप की प्राप्ति न हो जाए, तब तक एकाग्र चित्त से उसका ध्यान
और उसे प्राप्त करने का पुरुषार्थ निरन्तर करना चाहिये और एक बार इसकी प्राप्ति होते ही 'सच्चिदानन्द' की प्राप्ति होते देर नहीं लगेगी । फलतः, समस्त सृष्टि, निखिल भूमण्डल पूर्ण रूप से दिखायी देगा। पूर्णता की अलौकिक सचेतन सृष्टि का दर्शन होगा। इसी पूर्णता का परम दर्शन कराने हेतु पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने आवश्यक पुरुषार्थ का वर्णन अपने आठ अष्टकों में क्रमश: इस प्रकार किया है : पूर्णतामय दृष्टि, ज्ञानानन्द में लीनता, स्वसम्पत्ति में चित्त की स्थिरता, मोहत्याग, तत्त्वज्ञता, कषायों का उपशम, इन्द्रिय-जय और सर्वस्व त्याग ।
इस तरह जीवात्मा क्रमशः सर्वोच्च पद प्राप्त करती है ।