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________________ ९० ज्ञानसार न भविष्यति' । संसार में ऐसा होना सर्वथा असम्भव है । औदयिक और क्षायोपशमिक गुणों का जब अभाव हो जाए, नाश हो जाए, तब जीवात्मा उन गुणों से रहित बन जाती है । उसीका नाम 'निर्गुण' है। इस तरह अन्यान्यय दर्शनकारों की 'निर्गुण ब्रह्म' की कल्पना यथार्थ बनती है । लेकिन उनमें क्षायिक गुण होने से 'सगुण' भी है । I अतः हमें इसी सर्वत्याग को परिलक्षित कर निरन्तर औदयिक भावों के परित्याग के पुरुषार्थ में लग जाना चाहिये । वस्तुतस्तु गुणैः पूर्णमनन्तैर्भासते स्वतः । रूपं त्यक्तात्मनः साधोर्निरभ्रस्य विधोरिव ॥ ८ ॥८॥ अर्थ : बादल रहित चन्द्र की तरह परम त्यागी साधु / योगी स्वरूप परमार्थ समृद्ध और अनंत गुणों से देदीप्यमान होता है । विवेचन : कहीं बादल का नामो-निशान नहीं । स्वच्छ, निरभ्र आकाश ! पूर्णिमा की धवल रजनी और सोलह कलाओं से पूर्ण - विकसित चन्द्र ! कैसा मनोहारी दृश्य ! मानव-मन को पुलकित कर दे ! चराचर सृष्टि में नवचेतन का संचार कर दे ! निर्निमेष दृष्टि टिकी ही रह जाए। ऐसे अपूर्व सौन्दर्य - क्षणों का कभी अनुभव किया है ? सम्भव है, जाने-अनजाने कभी कर लिया हो ! फिर भी तन और मन अतृप्त ही रहा होगा ? पुनः पुनः उसी दृश्य का अवलोकन करने की तीव्र लालसा जगी होगी ? लेकिन प्रयत्नों की पराकाष्ठा के बावजूद निराशा ही हाथ लगी होगी । तो लीजिये, परम आदरणीय उपाध्यायजी यशोविजयजी महाराज हमें इसी तरह एक अलौकिक चन्द्र का अभिनव अवलोकन कराते हैं "जरा ध्यान से देखो; यहाँ एक भी कर्म रूपी बादल नहीं है । तुम्हारे सामने शुद्ध स्फटिकमय सिद्धशिला का अनन्त आकाश फैला हुआ है ! 'शुक्लपक्ष' की अनुपम, धवल रजनी सर्वत्र व्याप्त है । अनंत गुणों से युक्त आत्मा का चन्द्र पूर्ण कलाओं से विकसित है । पल दो पल - निरन्तर - निर्निमेष नेत्रों से बस, देखते ही रहो उसका अलौकिक सौन्दर्य, रूप और रंग ।”
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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