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हेतु आन्तर सूक्ष्म भूमिका पर रहे हुए बन्धुओं के साथ सम्बन्ध - संपर्क बनाना ही
होगा ।
त्याग
तुमने देखा होगा और अनुभव किया होगा कि बाह्य जगत में बन्धुत्व का सम्बन्ध कैसा अस्थिर है ! जो आज हमारे बन्धु हैं, वे ही कल शत्रु बन जाते हैं और जो शत्रु हैं, वे बन्धु बन जाते हैं। इस संसार में किसी सम्बन्ध की कोई स्थिरता नहीं है। ऐसे सम्बन्धों से घिरे रहकर जीवात्मा ने न जाने कैसे गाढे रागद्वेष के बीज बोये / पाप - बन्धन किये और दुर्गति की चपेट में फँस गये ? लेकिन अब तो सावधान बन प्राप्त मानवभव में ज्ञान के उज्ज्वल प्रकाश की प्रखर ज्योति में आन्तर-बन्धुओं के साथ अटूट सम्बन्ध बाँधना जरूरी है । ठीक उसी तरह अनादिकाल से चले आ रहे सम्बन्धों का विच्छेद करना भी आवश्यक है ।
"हे बन्धुगण ! अनादिकाल से मैंने तुम्हारे साथ स्नेह-सम्बन्ध रखे । लेकिन उसमें निःस्वार्थ भावना का प्राय: अभाव ही था, ना ही उसमें पवित्र दृष्टि थी । केवल भौतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर बार-बार उसे दोहराता रहा । लेकिन जैसे ही स्वार्थ का प्रश्न आया, तुम्हें अपना शत्रु ही माना और शत्रु की तरह ही व्यवहार करता रहा । स्वार्थ लोलुपता में अन्धा बन, तुम्हारी हत्या की, तुम्हारे घर बार लूटे । यहाँ तक कि अपने स्वार्थवश तुम्हें रसातल में पहुँचाते, तनिक भी न हिचकिचाया । सचमुच इस जगत में मनुष्य अपने स्वार्थ के खातिर दूसरे के साथ निःस्वार्थ स्नेह, प्रीति के सम्बन्ध बाँध नहीं सकता । अतः हे भाईयों ! अब मैंने आपके साथ के पूर्व-सम्बन्धो को तिलांजलि देकर, परम शाश्वत्, अनंत - असीम ऐसे शील, सत्य, शम-उपशम, संतोषादि गुणों को ही बन्धु के रूप में स्वीकार किया है ।
आत्मा के शील-सत्यादि गुणों के साथ बन्धुत्व का रिश्ता जोडे बिना जीवात्मा बाह्य जगत् के सम्बन्धों का विच्छेद नहीं कर सकता । बाह्य जगत का परित्याग यानी हिंसा, असत्य, चौर्य, मिथ्यात्व, परिग्रह, दुराचार, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि वृत्तियों का त्याग और वह त्याग करने के लिये अहिंसा, सत्य, अचौर्य, शील, निष्परिग्रहता, क्षमा, नम्रता, सरलता, विवेकादि गुणों का जीवन में स्वीकार ! उन्हीं को केन्द्रबिन्दु मान जीवन व्यतीत करना होगा । ऐसी स्थिति में जीवन विषयक दैनंदिन प्रश्नों को हल करने के लिये क्रोधादि कषायों का आश्रय