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________________ ज्ञानसार को लेकर होना चाहिये । अतः ममतामय माता-पिता से प्रार्थना करें । उनके स्नेहबन्धनों से मुक्ति हेतु उनके चरणों में गिर, नम्र निवेदन करें । "ओ माता और पिता ! हम मानते हैं कि आपके हम पर अनन्त उपकार हैं, अपार प्रेम है और असीम ममता है। लेकिन आपके स्नेह वात्सल्य का प्रत्युत्तर स्नेह से देने में हम पूर्णतया असमर्थ हैं । हमारे हृदय-गिरि से प्रस्फुटित स्नेहस्रोत, श्रद्धेय पिता स्वरूप शुद्ध आत्मज्ञान की दिशा में प्रवाहित हो गया है। हमारी प्रसन्नता 'आत्म-रति'-स्वरूप माता के दर्शन में, उसके उत्संग में समाविष्ट है। उनकी चरणरज माथे पर लगाने के लिये हमारा हृदय अधीर हो उठा है और मनवचन-काया के समस्त योग उसी दिशा में निरन्तर गतिशील हैं । अत: उनके शरणागत बन कृत-कृत्य होने की अनुमति दीजिये ।" 'शुद्ध-आत्मज्ञान' पिता है और 'आत्मरति' माता है । इनका आश्रय ही अभीष्ट है । इनके प्रति प्यार, स्नेह और ममता की भावना रखना महत्त्वपूर्ण है। किसी विशेष तत्त्व को माता-पिता मानना, मतलब क्या ? तनिक सोचो और निर्णय करो। उन्हें सिर्फ मान्यता देने से काम नहीं बनेगा । वस्तुतः अहर्निश उनकी सेवा-सुश्रूषा और उपासना में लगे रहना चाहिये । उनके प्रति सदा-सर्वदा एकनिष्ठ / वफादार हुए बिना सब निरुपयोगी है । अर्थात् शुद्ध आत्मज्ञान का परित्याग कर अशुद्ध अनात्मज्ञान की गोद में समा जाने की बुरी आदत को जडमूल से उखाड़ फेंकना है। आत्मरति / ज्ञानरति जैसी महामाता को तज कर पुद्गलरतिवेश्या के आलिंगन में आबद्ध होने की कुवृत्ति को छोडे बिना छुटकारा नहीं है। युष्माकं संगमोऽनादिर्बन्धवोऽनियतात्मनाम् । ध्रुवैकरुपान् शीलादिबन्धूनित्यधुना श्रये ॥८॥२॥ अर्थ : हे बन्धुगण ! अनिश्चित आत्मपर्याय से युक्त ऐसा तुम्हारा संगम प्रवाह से अनादि है । अतः निश्चित एक स्वरुप से युक्त ऐसे शील, सत्य, शमदमादि बन्धुओं का अब मैं आश्रय लेता हूँ। . विवेचन : जिस तरह अभिनव माता-पिता बनाये, ठीक इसी तरह नये बन्धु भी बनाने ही होंगे । बाह्य स्थूल भूमिका पर आधारित बन्धुजन से नाता तोडने
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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