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________________ ८. त्याग तुम एकाध व्यक्ति अथवा वस्तु का परित्याग करते हो, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। बल्कि तुम उसे किस पद्धति से, अथवा किस दृष्टि से त्याग करते हो, यह महत्त्वपूर्ण है । माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन और असंख्य स्नेही - स्वजनों का परित्याग करने की हमेशा प्रेरणा देनेवाले ज्ञानी महात्मा यहाँ तुम्हें अभिनव मातापिता, पति-पत्नी, भाई- बहन, प्रिया तथा स्नेही - स्वजनों से परिचित कराते हुए उनके साथ नये सिरे से सम्बन्ध स्थापित करने की प्रेरणा देते हैं 1 इन्द्रिय-विजेता के लिये सांसारिक, स्थूल जगत के प्रिय पात्रों का परित्याग करना सरल है । अतः नये दिव्य स्नेही - स्वजनों से परिचय कर लें । संयतात्मा श्रये शुद्धोपयोगं पितरं निजम् । धृतिमम्बां च पितरौ, तन्मां विसृजतं ध्रुवम् ॥८॥१॥ अर्थ : संयमाभिमुख होकर मैं शुद्ध उपयोग स्वरुप पिता एवं आत्मरति रुप माता की शरण ग्रहण करता हूँ । " ओ माता-पिता ! मुझे अवश्य मुक्त कीजिये ।" विवेचन : किसी उत्तम पद अथवा स्थान को पाने के लिये हमें अपने पूर्व पद अथवा स्थान का परित्याग करना पड़ता है । लोकोत्तर माता - पिता की अभौतिक वात्सल्यमयी गोद में खेलने के लिये लौकिक माता - पितादि आप्तजनों का परित्याग किये बिना भला कैसे चलेगा ? हाँ, वह त्याग, राग या द्वेष पर आधारित न हो, बल्कि लोकोत्तर माता पिता के प्रति तीव्र आकर्षण, आदरभाव
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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