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________________ ८४ ज्ञानसार नहीं ले सकते । हिंसादि पाप-बन्धनों की शरण नहीं ग्रहण कर सकते । कान्ता मे समतैवैका, ज्ञातयो मे समक्रियाः बाह्यवर्गमिति त्यक्त्वा, धर्मसंन्यासवान् भवेत् ॥८॥३॥ अर्थ : 'समता ही मेरी प्रिय पत्नी है और समान आचरण से युक्त साधु मेरे स्वजन - स्नेही हैं।' इस तरह बाह्य धर्म का परित्याग कर, धर्म-संन्यास युक्त बनता है । विवेचन : समता ही मेरी एकमात्र प्रियतमा है । अब मैं उसके प्रति ही एकनिष्ठ रहुंगा । जीवन में कभी उससे छल-कपट नहीं करूंगा । आज तक मैं उससे बेवफाई करता आया हूँ। ऐसी परम सुशील पतिव्रता नारी को तज कर मैं ममता - वेश्या के पास चक्कर काटता रहा, बार-बार वहाँ भटकता रहा । ममता, स्पृहा, कुमति वगैरह वेश्याओं के साथ वर्षों तक आमोद-प्रमोद करता रहा और बेहोश बन, मोहमदिरा के जाम पर जाम चढ़ाता आया हूँ। वह भी इस कदर कि, उसमें डूब अपना सब कुछ खो बैठा हूँ। लेकिन समय आने पर उन्होंने मिलकर मुझे लूट लिया, मुझे बेइज्जत कर घर से खदेड दिया । फिर भी निर्लज्ज बन अब भी उनकी गलियों के चक्कर काटना भूल नहीं पाया । पुनः जरा संभलते ही दुगुने वेग से वेश्याओं के द्वार खटखटाने लगा हूँ। में उन्हें भूल नही पाया हूँ। फिर वही मोह-मदिरा के छलछलाते जाम, प्यार-दुलार भरे नखरे, अजीब बेहोशी, पुनः मूर्च्छा और पुनः उनका डण्डा लेकर पिल पड़ना । लेकिन होश कहाँ ? उनके मादक रूप, रंग और गन्ध का आकर्षण मुझे पागल जो बनाए हुए है ! " लेकिन अब बहुत हो चुका। मैंने सदा के लिये इन ममता, माया रुपी वेश्याओं को तिलांजलि दे दी है। समता को अपनी प्रियतमा बना लिया है । उसके सहवास और संगति में मुझे अपूर्व शान्ति, अपरंपार सुख और असीम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है । " " इसी भाँति संसार के स्नेही स्वजनों को भी मैंने परख लिया है, निकट से जान लिया है। अब में क्या कहूँ ? क्षण में रोष और क्षण में तोष ! सभी
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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