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ज्ञानसार
विषयासक्ति तुम्हें ज्ञान-धन हाँसिल नहीं होने देगी। अपनी ओर से वह तुम्हारे मार्ग में हर सम्भव रोडा अटकायेगी, बाधायें पैदा करेगी और ऐसा भगीरथ पुरुषार्थ करने नहीं देगी । यह निर्विवाद सत्य है कि आज तक तुमने ज्ञान-धन पाने का पुरुषार्थ नहीं किया, उसके पीछे इन्द्रिय-परवशता ही मूल कराण है । श्रुतज्ञान (ज्ञानधन) पाने के पश्चात् भी अगर जीव इन्द्रिय- परतंत्रता का शिकार बन जाए तो प्राप्त ज्ञानधन लुप्त होते देर नहीं लगती । तभी श्री भावदेवसूरिजी ने कहा है :
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" जई चउदश पुव्वधरो, निद्दाईपमायाओ वसइ निगोए अनंतयं कालं ।" चौदह पूर्वधर महर्षि भी यदि निद्रा, विकथा, गारव में अनुरक्त / लीन हो जाए, तो वे भी अनन्तकाल तक निगोद में भटकते हैं । अर्थात् जब तक केवलज्ञान का निधान प्राप्त न हो, तब तक क्षणार्ध के लिये भी इन्द्रिय- लोलुप बनने से काम नहीं चलता । निरन्तर जागृति और ज्ञानधन की प्राप्ति हेतु सदैव पुरुषार्थ करते ही रहना है ।
पुरः पुरः स्फुरत्तृष्णा, मृगतृष्णानुकारिषु । इन्द्रियार्थेषु धावन्ति, त्यक्त्वा ज्ञानामृतं जडा: ॥७॥६॥
अर्थ : जिसको उत्तरोत्तर बढ़ती हुई तृष्णा है, ऐसे मूर्खजन ज्ञान रूपी अमृत रस का त्याग कर मृगजल समान इन्द्रियों के विषयों में दौड़ते हैं ।
विवेचन : हिरण को भला कौन समझाये ? न जाने वह किस खुशी में कुलांचे भरता दौडा जा रहा है ? यहाँ कहाँ पानी है ? यह तो नीरी सूर्य किरण की जगमगाहट है ! उसे कहाँ पानी मिलनेवाला है ? मिलेगा... क्लेश, खेद और अथक थकान ! लेकिन हिरण कहाँ किसी की सुननेवाला है ? वह तो निपट मूर्ख... मतिमन्द ! लाख समझाने के बावजूद कुलांचे भरता, किलकारी मारता भागता ही रहा और जा पहुँचा रेगिस्तान में ! जहाँ देखो वहाँ रेत ही रेत ! जिसे उसने पानी से लबालब भरा जलाशय समझा, वह निकली रेत, सिर्फ धूल के जगमगाते अगणित कण ! लेकिन उत्साह कम न हुआ, जोश में ओट न आयी । क्षणार्ध के लिये रूका और दूर- सुदूर तक देखता रहा । दुबारा जलाशय के दर्शन हुए। फिर दौड लगायी । जलाशय के पास जा पहुँचा। लेकिन जलाशय कहाँ ?