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इन्द्रिय-जय
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वह तो सिर्फ मृगजल था, एक छलावा ! मगर हिरण को कौन समझाये कि रेगिस्तान में कहीं पानी मिला है, जो उसे मिलेगा ... ?
ठीक इसी तरह संसार के रेगिस्तान में इन्द्रिय- लोलुपता के वशीभूत हो, कुलांचे भरते जीवों को कौन समझाये ? जिस वेग से जीव इन्द्रियसक्ति का दास बना भागता रहता है, उसी अनुपात में उसकी वैषयिक - तृष्णा बढ़ती ही जाती है। क्लेश, खेद, असंतोष और अशान्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है। इसके बावजूद भी वह, समझने को कतई तैयार नहीं कि इन्द्रियजन्य सुख से उसे तृप्ति मिलनेवाली नहीं है । यही तो उसकी मानसिक जडता है, निपट मूर्खता और अव्वल दर्जे की अनभिज्ञता / अज्ञानता !
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श्री उमास्वातिजी ने अपनी कृति 'प्रशमरति' में इसे लेकर तीखा उपालंभ दिया है : येषां विषयेषु रतिर्भवति न तान् मानुषान् गणयेत् ।
जिसे विषयों में तीव्र आसक्ति है, उसकी गणना मनुष्य में नहीं करनी चाहिये ।' अर्थात् जो जीव मनुष्यत्व से अलंकृत है, उसे इन्द्रियों के विषयों से क्या मतलब ? उसे विषयों से लगाव क्यों, प्रेम-भाव क्यों ? यदि इन्द्रियों के व्यापार से तन्मयता साधनी है, तो इसके लिये मनुष्य-भव नहीं । मानव-जीवन में तो ज्ञानामृत का ही पान करना है । उसमें ही परेम तृप्ति का अनुभव करना है। जैसे- जैसे तुम ज्ञानामृत का पान करते जाओगे, वैसे-वैसे निकृष्ट, तुच्छ, अशुचिमय और असार ऐसे वैषयिक सुखों के पीछे दौड़ना कम होता जायेगा । इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति खत्म होती जाएगी ।
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से
पतङ्गामृङ्गामीनेभ- सारंगा यान्ति दुर्दशाम् । एकैकेन्द्रिय दोषाच्चेद्, दुष्टैस्तैः किं न पंचभिः ॥७॥ ७॥
अर्थ : पतंगा, भ्रमर, मत्स्य, हाथी और हिरण एक - एक इन्द्रिय के दोष को पाते हैं, तब दुष्ट ऐसी पाँच इन्द्रियों से क्या क्या न होगा ?
मृत्यु
विवेचन : एक-एक इन्द्रिय की गुलामी ने जीवात्मा की कैसी दुर्दशा की है ? पतंगा दीप- शिखा के नेह में निरन्तर उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है । उसे पाने के लिये प्राणों की बाजी लगा देता है । उसके रूप और