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________________ निष्कलंक धर्म करने पर दौड़ा। तब भय से आंखों की किरकिरियां फिराते हुए और शरीर से कांपते हुए वे "तू हमारी रक्षा कर" ऐसा कहकर मुनि के पांवों में गिर पड़े। तब उन्हें साधु के शरण में पड़ा हुआ देखकर यक्ष शान्त हुआ, इतने में कायोत्सर्ग पालकर मुनि ने उनको इस प्रकार कहा: ५४ हे भद्रो ! मुनिजन सदैव सर्व क्रियाएं मोक्ष ही के हेतु करते हैं और मोक्ष सकल राग द्व ेष से रहित धर्म ही से मिलता है । सराग धर्म से स्वर्गादिक फल मिलता है तथापि परम्परा से वह भी अन्त में मोक्ष ही का हेतु होता है । तथा "धर्म से धन का लाभ होता है" ऐसा जो तुमने कहा, सो भी युक्त नहीं, क्योंकिसकल पुरुषार्थ धर्म से ही होते हैं । / कहा है कि:- धर्म धनार्थी को धन देता है, कामार्थी को काम पूर्ण करता है और परम्परा से मोक्ष देता है । तथा तुमने जो धन के भोगादिक को संसार के कारण कहे, वह भी क्लिष्ट परिणामी जीवों के आश्रय से है । अक्लिष्ट परिणामी को नहीं, कहा है कि:- कोई ऐसी भी कला है कि जिसके द्वारा परमार्थ को जान कर अपने मन में ऐसा ध्यान करते हैं कि जिससे सैकड़ों घड़ों से स्नान करने पर भी बिन्दु मात्र से भी नहीं भीगते । अपन सुनते भी हैं कि, भरत और सगर आदि पुरुष यहां चिरकाल तक उत्तम भोग भोगकर अक्लिष्टचित्त रह करके मुक्ति पद को प्राप्त हुए हैं। यह सुन उन दोनों ने प्रतिबोध पाकर उक्त अपराध बारंवार खमा कर उक्त मुनि से दीक्षा ग्रहण की। वे यति के योग्य क्रियाऐं जानकर गुरु से अनेक सूत्रार्थ सीख कर चिरकाल तक उग्र विहार करते रहकर क्षमा सहित तप करने लगे ।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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