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________________ शिवभद्र की कथा अब अशुभ कर्म - वश श्रीयक चारित्र में शिथिल होने लगा । वह मन में जाति-मद रखकर गुरु के विनय को भी छोड़ने लगा । तब उसे शिवभद्र कहने लगा कि - हे भद्र ! लाखों भवों में भी दुर्लभ, इस चरण करण में तू क्षण भर भी शिथिल मन क्यों करता है ? तू नित्य गुरु विनय में तत्पर रह और लेशमात्र भी जाति मद मत कर। क्योंकि जाति मद आदि से जीव दुःखी होकर संसार रूप अटवी में भटकता है । ५.५ कहा है कि - जाति, कुल, रूप, बल, श्रुत, तप लाभ और ऐश्वर्य इन आठ मदों से मत्त होकर अशुभ कर्म बांधता है व संसार में बहुत भटकता है । अतः हे भद्र ! तेरे इस दोष को तू गीतार्थ गुरु सम्यक् रीति से आलोचना की विधि जानकर आलोच । आलोचना की विधि इस प्रकार है - प्रतिसेवा, प्रतिसेवक के दोष, गुण, गुरु के गुण, सम्यकू विशोध के गुण और सम्यक् रीति से आलोचना न करनेवाले को शिक्षा ये द्वार जानना चाहिये । } प्रतिसेवा दश प्रकार से है:- दर्प, प्रमाद, अनाभोग, सहसा - कार, आतुर, आपत्, शंकित, भय, प्रद्वेष और विमर्श । दौड़ा दौड़ करना सो दर्प, कंदर्प सो प्रमाद, भूल जाना सो अनाभोग और अकस्मात् होता है सो सहसाकार कहलाता है। भूख प्यास वा व्याधिग्रस्त होकर सेवे सो आतुर प्रतिसेवा कहलाती है और द्रव्यादिक के अलाभ से चार प्रकार की आपत् प्रतिसेवा है। शक भरा हुआ आवाकर्मादिक सेवन करे सो शंकित प्रतिसेवा - भय सो सिंह आदि का जानो, प्रद्व ेष सो क्रोधादिक और शिष्यादिक की चिंता सो विमर्श जानो ।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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