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________________ निर्गन्य मुनि का दृष्टांत अनाथता है। मेरी बहिने बायीं हथेली पर मुख रखकर गंभीर स्वर से रोने लगी, किन्तु मुझे दुःख से नहीं छुड़ा सकीं । हे राजन् ! यह मेरी अनाथता है । तथा मेरी स्त्री खानपान व शृंगार आदि काम छोड़ कर अश्रु-पूर्ण नयनों से मेरे वक्षस्थल को भिगोती हुई, मेरे पास से क्षण भर भी दूर न होकर झरने लगी, किन्तु मुझे दुःख से न छुड़ा सकी, हे राजन् ! यह मेरी अनाथता है। इस मांति किसी प्रकार से भी लेश मात्र आंख की पीड़ा कम न होने से मैंने सोचा कि-हाय हाय ! यहां कोई भी नाथ (रक्षक) नहीं और यह सोचकर मैंने प्रतिज्ञा की कि-जो इस वेदना से मुक्त होऊं तो सब का संग छोड़ कर उत्तम अनगारी-पन ग्रहण करू। इस प्रकार प्रतिज्ञा करके सोये हुए मुझे रात्रि को नींद आ गई और वेदना बन्द हो गई । जिससे मैं मानों नवीन शरीर वाला हो गया। बाद प्रातःकाल होने पर स्वजन-वर्ग की आज्ञा लेकर मैंने यह सर्वज्ञ-प्रणीत शुद्धदीक्षा ग्रहण की है। हे राजगृह के स्वामी ! तब से मैं अपना, परका और तदुभय का नाथ हुआ हूँ। हे राजन् ! यह भी एक भांति की अनाथता है। जिसे तू एक चित्त से सुन । जैसे कि कोई-कोई कातर मनुष्य निर्ग्रन्थ-धर्म पाकर भो सीदाते हैं। जो प्रव्रज्या लेकर प्रमादवश महा व्रतों को यथारीति नहीं पालते हैं और आत्मा विषय से व्याकुल होकर रसों में गृद्ध होते हैं, वे बंधन को मूल से नहीं काट सकते। जिसे ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपणिका, और पारिस्थापनिका, इन पांचों समितियों में उपयोग न हो, वह वीर-पुरुषों के मार्ग में नहीं चल सकता। वह दीर्घकाल तक मुडन रुचि होकर भी अस्थिर व्रत बाला और तप-नियम से भ्रष्ट रहकर अपने को गहन क्लेश में उतार कर भी संसार का पार नहीं पा सकता । वह
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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