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________________ ४४ शुद्धदेशना पर खाली मुट्ठी की भांति अथवा नियमशून्य बनावटी सिक्के के समान अथवा कांचमणि के समान जानकार मनुष्यों में बिना मूल्य का हो जाता है। इस प्रकार यहां कुशीलता धारण कर जीविका के लिए रजोहरण को श्रेष्ठ बताते हुए असंयत-जन अपने को संयत कहकर चिरकाल विनिधीत (निपात) पाते हैं। जैसे कालकूट विष पीने में आया हो, अथवा शस्त्र उलटा पकड़ने में आया हो तो वह मारता है। वैसे ही विषययुक्त धर्म भयंकर मंत्रादि से अनियंत्रित वेताल के समान मारता है। जो मुनि होकर लक्षण और स्वप्न के फल कहे, निमित्त और कुतूहल में लगा रहे कुहेटक विद्या-चमत्कारिक मंत्र-तंत्र का ज्ञानरूप विद्या आदि आश्रवद्वार से आजीविका करे उसको वह सब मृत्यु के समय कुछ भी रक्षा करने वाला नहीं। तमंतमेन-घोर अज्ञानसे अशील (शीलहीन) जो होता है वह सदा दुःखी रहकर विपर्यास को पाता है। वह असाधु हो मुनित्व की विराधना करके नरक और तियंच योनि में भटकता है। जो औद्देशिक, क्रीतकृत, नियाग दोषयुक्त ऐसा कुछ भी अनेषणीय नहीं छोड़े, पर अग्नि के समान सर्वभक्षी होकर रहता है वह यहां से पाप करके मर कर अत्यन्त खराब स्थान को पाता है। गला काटने वाला शत्रु उतना नुकसान नहीं कर सकता जितना वह अपने दुरात्मपन से करता है । वह दयाहीन जब मौत के मुख में पड़ेगा तभी जान सकेगा और पश्चाताप करेगा। ____ जो उत्तम अर्थ में विपर्यास पाता है, उसे साधुपन की रुचि निरर्थक है। उसे यह लोक भी नहीं और परलोक भी नहीं, दोनों लोक बिगड़ जाते हैं । इसी प्रकार यथाछंद और कुशील जिनेश्वर
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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