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________________ ४२ शुद्धदेशना पर तब मुनि राजा के मन की अनुवृत्ति न कर सिद्धांत के अनुसार यथारीति युक्तियुक्त और स्पष्टतः इस भांति बोले कि-हे श्रेणिक ! तू स्वयं ही अनाथ है तो स्वतः अनाथ होते तू दूसरे का नाथ किस प्रकार हो सकेगा ? मुनि के यह कहने से संभ्रान्त होकर राजा इस प्रकार बोला कि-मैं चतुरंगो सेना से परिवारित हूं । निरुपम भोग प्राप्त कर सकता हूँ और आज्ञा ऐश्वर्य वाले राज्य से युक्त हूं । तो भी आप मुझे अनाथ क्यों कहते हो? इसलिये हे पूज्य ! झूठ मत बोलिये। मुनि बोले कि हे राजन् ! इस बात के अर्थ तथा उत्थान को तू नहीं जानता है, अतः एकाग्र मन से सुन____कौशाम्बी नगरी में कुबेर की ऋद्धि को भी हंसने वाला और बहुत से स्वजन-वर्ग-युक्त तथा जगत् प्रसिद्ध यश वाला मेरा पिता था । अब हे मगधेश्वर ! मुझे वहां प्रथम वय में ही आंख की अति दुस्सह वेदना होने लगी । और उससे शरीर में दाह होने लगा। उस समय मेरे शरीर में मानों तीक्ष्ण भाले घुसते हों अथवा मैं वज्र से छेदित हुआ होउं, वैसी अत्यन्त दुःसह्य आंख की पीड़ा से मैं बेहोश हो गया । तब बहुत से मंत्र तन्त्र विद्या के जानने वाले जन मेरी चिकित्सा करने लगे किन्तु कोई भी दुःख से नहीं छुड़ा सका। हे राजन् ! यह मेरी अनाथता है। मेरे कारण मेरा पिता घर का सम्पूर्ण द्रव्य देने को तैयार हो गया किन्तु मुझे दुःख से नहीं छुड़ा सका । हे राजन् ! यह मेरी अनाथता है | आंसुओं के प्रवाह से मुख को धोती हुई मेरी माता अत्यन्त झरने लगी किन्तु मुझे दुःख से नहीं छुड़ा सकी ! हे राजन् ! यह मेरी अनाथता है। क्या करना चाहिये इसी में मूढ़ बन कर मेरे छोटे बड़े भाई रोने लगे, किन्तु मुझे दुःख से नहीं छुड़ा सके। हे राजन् यह मेरी
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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