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________________ अचलमुनि का दृष्टीत होकर उचित समय उत्पन्न हुए और उसे सुर असुरों ने मिलकर मेरू के शिखर पर अभिषिक्त किया। उसका नाम जयमित्र रखा गया । वह उचित समय पर दीक्षा लेने की इच्छा करने लगा तो लोकांतिक-देवों ने उसका अधिकाधिक उत्साह बढ़ाया। . पश्चात् वह बारह मास पर्यन्त अविच्छिन्नता से महादान देकर दीक्षा लेने को उद्यत हुआ। तब चौसठ इन्द्रों ने उसकी महान् निष्क्रमण महिमा करी । उस समय वहां सुर असुरों के एकत्र होकर त्रिलोक को एक जगत् करते हुए उसने सर्वोत्तम श्रमणत्व धारण किया। बाद शुक्ल-ध्यानरूप अग्नि से घातिकर्मरूप वृक्ष को समूल जलाकर केवलज्ञान पाकर अखिल त्रैलोक्य को देखने लगा। पश्चात् वे भगवान् सिंहासन पर बैठे। उनके मस्तक पर तीन श्वेतछत्र धरे गये, और उनके शरीर से द्वादश गुण बड़ा कंकेलि नामक वृक्ष (अशोक वृक्ष) उन पर शोभने लगा । उनके दोनों ओर श्वेतचामर दुलने लगे । सन्मुख पुष्प डाले गये और सूर्य-मंडल को जीतने वाले भामण्डल से उनके चारों ओर अन्धकार दूर होने लगा। तथा उन्होंने दुर्जयभावशत्रुओं को जीता। उसकी विजयध्वनि हो, उस भांति वहां देवों ने दुदुभि बजाई और वे सर्व भाषाओं से मिलती हुई दिव्यवाणी से तीनोलोक के संदेह हरने लगे। वे भगवान् सुगति का मार्ग प्रकट कर, पूर्ण भाव वाले भन्यजनों को प्रतिबोध करके चिरकाल तक विहार कर अनन्त सुख-संपदा को प्राप्त हुए। . . इस प्रकार जैन-शास्त्ररूप वन को प्रफुल्लित करने के लिये नवमेघ समान अचल-मुनीश्वर का चरित्र सुनकर हे मुनियों :!
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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