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________________ ३८ तीसरा लक्षण शुद्धदेशना का स्वरूप तुम सम्यज्ञान, दर्शन और तपश्चरण आदि में अतृप्त-मन-पूर्वक श्रद्धा करो। इस प्रकार अचल मुनीश्वर का चरित्र पूर्ण हुआ। इस प्रकार अतृप्तिरूप दूसरा लक्षण कहा, अब शुद्ध देशनारूप तीसरा लक्षण कहने के लिये पहिले उसका अधिकारी, बताते हैं। सुगुरुसमीवे सम्म सिद्धंतपयाण मुणियतत्तत्थो । तयणुनाओ धन्नो मज्झत्थो देसणं दुःणइ ॥९५॥ मूल का अर्थ-सुगुरु के पास भलीभांति सिद्धान्त के पदों का तत्त्वार्थ जानकर उनकी अनुज्ञा प्राप्त कर धन्य-पुरुष मध्यस्थ रहकर देशना करे। टीका का अर्थ-सुगुरु याने संविग्न गीतार्थ आचार्य से सम्यक् अर्थात् पूर्वापर पर्यालोचना पूर्वक सिद्धान्त के पदों का पदार्थ, वाक्यार्थ महा वाक्यार्थ तथा ऐदंपर्यार्थ की रीति से परमार्थ जानकर (देशना करे) कहा भी है किः-पद वाक्य, महावाक्य और ऐदंपर्य इस भांति यहां चार वस्तुएं हैं । वे श्रुत का भाव जानने के प्रकार कहे हैं । ये चारों संपूर्ण होते भाव समझा जाता है। इसके सिवाय कभी-कभी विपर्यास भी हो जाता है और विपर्यास तो अनिष्ट फल देता है। ऐसा होते भी वह गुरु की अनुज्ञा लेकर देशना करे, न कि वाचालपन तथा अस्थिरता से स्वतन्त्र होकर । इस प्रकार धन्य अर्थात् धर्म धन के योग्य और मध्यस्थ याने स्वपक्ष और परपक्ष में रागद्वष राहत हो, सद्भूतवादी होकर धर्मदेशना करे।
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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