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________________ ज्ञानादिक में अतृप्ति पर मुझे घर में वा बाहिर, वसति में वा जंगल में, दिवस में वा रात्रि में लेश मात्र भी सुख नहीं है । अतः कोई ऐसा उपाय कहिये कि जिससे मैं स्वस्थ चित्त हो यह धर्म कर सकूइस प्रकार राजा के दूसरी बार कहने पर भी वे मुनिवर सावध काम का वर्जन करने वाले होने से श्रेष्ठ-ज्ञानी होते भी कुछ न बोले । इतने में मुनि के पास बैठे हुए विद्याधर ने राजा को इस प्रकार कहा____ बहु लब्धि की समृद्धि वाले इन श्रमण सिंह के पग की रेणु छिड़क कर हाथियों को निरोग करो। यह सुन राजा ने प्रसन्न हो, मुनि के पग से स्पर्श हुई धूल इकट्ठी करके उन सब हाथियों पर तीन बार लगवाई, तब जैसे अमृत से विष उतरता है अथवा सूर्य की किरणों से जैसे अन्धकार नष्ट होता है, उसी भांति हाथियों में से उक्त रोग माग गया । यह आश्चर्य देख अत्यन्त हर्षित हो राजा कहने लगा किभगवन : हाथियों को यह व्याधि किस कारण से हुई होगी ? मुनि ने कहा-हे नरवर ! उस समय तुमने जो योगी मारा था, वह मर कर अकाम-निर्जेरावश राक्षस हुआ है। उसने पूर्व का वैर स्मरण करके तेरे शरीर पर हमला करने में असमर्थ हो, यह भी एक भांति का दुःख होगा, ऐसा मान कर हाथियों में रोग पैदा किया है। किन्तु मेरे पग की रेणु के स्पर्श से उक्त व्याधियां दब गई हैं। वह राक्षस भाग गया है और हाथियों का समूह स्वस्थ हो गया है । मुनि का ऐसा माहात्म्य देखकर, राजा हर्षित होकर, गृहिधर्म स्वीकार कर प्रवचन का प्रभावक श्रावक हुआ। ___अचल-मुनि भी चरणादिक में अतृत रह कर, अनशन करके सौधर्म-देवलोक में देवता हुआ । वहां से च्यव कर महाविदेहान्तर्गत कच्छ-विजय में श्री जयपुरी के पुरन्दरयश राजा की सुदर्शना रानी की कुक्षि में चौदह महा स्वप्न पूर्वक गर्भ में उत्पन्न
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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