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________________ पूर्वाचार्यों की प्रशंसा १७१ वाला और तैंतीस हजार वर्ष में मन से आहार लेने वाला, तथा अवधिज्ञान से भिन्न लोकनाली को देखता हुआ आनन्दित रहकर, प्रवर तेजस्वी हो, मुक्ति समान सुख भोगता रहा। पश्चात् श्रीप्रभ और प्रभाचन्द्र के जीव स्व-स्व स्थान से च्यवन कर पश्चिम महाविदेह में, शुद्धचारित्र पालन कर मुक्ति पावेगे। ___ इस प्रकार इक्कीस गुणों से युक्त श्रीप्रभ राजा, साधु श्रावक के धर्म का भार धारण करने को धौरेयक हुआ । इस लिये हे भव्यजनो! तुम भी शाश्वत सुख स्थान प्राप्त करने में आदरबद्ध होकर इन मूल गुणों का उपार्जन करने में नित्य यत्न करते रहो। ____ इस प्रकार श्रीप्रभ महाराजा की कथा पूर्ण हुई। ऐसा होने से विशेषतः पूर्वाचार्यों की प्रशंसा करते हैं:ता सुट्ट इमं भणियं पुवायरिएहि परहियरएहिं । इगवीस गुणोवेयो जोगो सइ धम्मरयणस्स ||१४१।। मूल का अर्थ-इसीलिए परहित परायण पूर्वाचार्यों ने ठीक कहा है कि-इक्कीस गुणों से जो युक्त होता है, वही सदैव धर्मरत्न के योग्य होता है। टीका का अर्थ-क्योंकि इन गुणों से युक्त हो, वह धर्म कर सकता है, इसीलिये पूर्वाचार्यों ने अर्थात् पूर्व काल में हुए सूरियों ने परहितरत अर्थात् अन्य जनों का उपकार करने की लालसा से यह सुष्ठु कहा है, अर्थात् कि-शोभन-उत्तम-श्रेष्ठ कहा है किइक्कीस गुणों से उपेत अर्थात् युक्त हो, वह सदा पूर्वोक्त स्वरूप वाले धर्मरत्न को योग्य होता है। ___ अब प्रकृत शास्त्रार्थ का अनुवाद करते हुए उपसंहार की दो गाथाएं कहते हैं:
SR No.022139
Book TitleDharmratna Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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